12 अक्तूबर, 2010

सादर वंदन

हे सुमन ,तुम हो शिव ,हो मंगल ,
तुम्हें मेरी सादर वंदन ,
जब तुम थे बाल सुमन ,
लोग बहुत प्यार देते थे ,
तुम्हें अनवरत देखा करते थे ,
जैसे जैसे वय बढ़ती गई ,
सौंदर्य बोध ने बहकाया ,
मदिरा का प्याला भी छलकाया,
पर कर्तव्यों से पीछे न हटे ,
हर चुनौती की स्वीकार ,
कहीं भी असफल ना रहे ,
नियमित जीवन संयत आचरण ,
जीवन के थे मूल मंत्र ,
अध्ययन ,मनन और चिंतन ,
में थी गहन पैंठ ,
मूर्धन्य साहित्यकार हुए ,
तुम्हारी कृतियों की,
कोई सानी नहीं है ,
प्रशंसकों की भी कमी नहीं है ,
इस दुनिया से दूर बहुत हो ,
पर कण कण में बसे हुए हो ,
साँसों का हिसाब किया करते थे ,
आज हो बहुत दूर उनसे ,
पहचान यहाँ की है तुमसे ,
हो वटवृक्ष ऐसे ,
जिसके आश्रय में आ कर ,
कई हस्तियाँ पनप गईं हें ,
आकाश की उचाई छू रही हें ,
है मेरा तुमको सादर नमन |
आशा

11 अक्तूबर, 2010

वे बेवफा नहीं हें

उदास होते हुए भी ,
दुखी नहीं हूं ,
है विश्वास खुद पर ,
लाचार नहीं हूं ,
सताया बहुत दुनिया ने ,
पर दोषी नहीं हूं ,
ना चाहते हुए भी ,
चुप हूं ,
कहना बहुत है ,
पर मौन हूं ,
जोड़ा है नाता,
ग़मों से ,
हाथ मिलाया,
है उनसे ,
क्यूँ कि वे ,
बेवफा नहीं हें,
है दुनिया उनकी भी ,
अब उसी में,
खो गई हूं ,
पर बातें कल की,
याद जब आतीं हें ,
जग की,
निष्ठुरता की ,
पहचान कराती हें ,
जान गई हूं ,
समझ गई हूं ,
है क्या अर्थ,
निष्ठुरता का ,
साहस भी है,
कहने का ,
पर शब्द होंटों तक ,
आकर लौट जाते हें ,
परिणीति है यह ,
ग़मों के साथ जीने की ,
उन्हीं में,
डूबे रहने की ,
उनसे सीखी,
सहनशीलता ,
और सीमाएं उसकी ,
वे सदा,
साथ निभाते है ,
जब भी हाथ बढाया ,
साथ खड़े,
हो जाते हें ,
मित्रता निभाते हें ,
कितनी भी विषम ,
परिस्थिती हो ,
मैं उन्हीं में,
डूबी रहती हूं ,
तभी अपने को ,
सम्हाल पाती हूं |
आशा

10 अक्तूबर, 2010

हे शक्ति दायनी


हे शक्तिदायानी वर दायनी ,
हे कल्याणी ,हे दुर्गे ,
तुम्हारे द्वार पर जो भी आता ,
खाली हाथ नहीं जाता ,
पूर्ण कामना होती उसकी ,
जो भी तुम्हें मन से ध्याता ,
है उसकी झोली खाली क्यों?
उसने तो सभी यत्न किये ,
तुम्हें पूरी तरह मनाने के ,
भक्ति भाव में डूबा था ,
फिर रही कहाँ कमी ,
यदि इसका भान करा देतीं,
कठिन परीक्षा ना लेतीं ,
वह भव सागर से तर जाता ,
इस जीवन से मुक्ति पाता ,
उसकी झोली खाली थी ,
आज तक भी भरी नहीं है ,
कोई उपाय सुझाया होता ,
वह ठोकर नहीं खाता ,
यदि गिरता भी तो सम्हल जाता ,
बड़े अरमान थे बेटी के ,
तुम बेटी बन कर आजातीं ,
वह तुम्हारे और निकट होता ,
तुम में ही खोता जाता ,
यश गान तुम्हारा सदा करता ,
संतुष्टि का अनुभव करता |
आशा

कुछ ना कुछ सीख देती है ,

आदित्य की प्रथम कीं ,
भरती है जीवन ऊर्जा से ,
कलकल बहता जल सरिता मै ,
सिखाता सतत आगे बढना ,
जल स्त्रोत सिखाता है ,
कपट ह्रदय मै कभी न रखना ,
निर्मल जल से सदा रहना ,
कोकिला की कुहुक कुहुक ,
देती सन्देश मीठी वाणी का ,
हरी भरी वादी कहती ,
सदा विहसते रहना ,
शाम ढले पक्षी समूह ,
जब आसमान मै करते विचरण ,
लगते बहुत अधीर ,
गंतव्य तक पहुंचने के लिए ,
उन्हीं दीख लगता है ,
द्वार पर बैठ राह कोइ देख रहा ,
उसके भी धर लौटने की ,
चाँद चांदनी ओर आकाश ,
जिसमे दिखती आकाश गंगा ,
उसमे चमकते तारे अनेक ,
होता परिचय प्राकृतिक सौंदर्य का ,
प्रकृति की अनुपम छटा ,
हर और दिखाई देती है ,
कुछ न कुछ सीख देती है ,
जो होती है बहुत अमूल्य ,
प्रकृति से छेड़छाड ,
दुःख से भर देती है ,
पर्यावरण का संकल्प ।
बहुत महत्व रखता है ,
जो भागीदार होता इसका ,
वृहद कार्य करता है |
आशा

09 अक्तूबर, 2010

लक्ष्मण रेखा

क्यूं बंद किया
लक्ष्मण रेखा के घेरे मै
कारण तक नहीं समझाया
ओर वन को प्रस्थान किया
यह भी नहीं सोचा
मैं हूँ   एक मनुष्य 
स्वतन्त्रता है अधिकार
यदि आवश्कता हुई
अपने को बचाना जानती
पर शायद यहीं मै गलत थी
अपनी रक्षा कर न सकी
 बचा न सकी खुद को रावण से
मैं कमजोर थी अब समझ गयी हूं
यदि तुम्हारा कहा सुन लिया होता
अनर्गल बातों से दुखित तुम्हें न किया होता
दहलीज पार न करती
हा राम हा राम कि आवाज सुन
राम तक पहुंचने के लिए
कष्ट मैं उन को  देख
सहायतार्थ जाने के लिए
तुम्हें बाध्य ना किया होता
मैं लक्ष्मण रेखा पार नहीं करती
रावण को भिक्षा देने के लिए
दहलीज  पार न करती
यह दुर्दशा नहीं होती
विछोह भी न सहना पड़ता
अग्नि परीक्षा से न गुजरना पड़ता
धोबी के कटु वचनों से
मन भी छलनी ना होता
क्या था सही ओर क्या गलत
अब समझ पा रही हूं
इसी दुःख का निदान कर रही हूं
धरती से जन्मी थी
फिर धरती में समा रही हूं |
आशा

08 अक्तूबर, 2010

था वह मेरा अतीत

जाने कहां खो गया ,
मेरी छाया से भी दूर हो गया ,
जब तक लौट कर आएगा,
बहुत देर हो जाएगी ,
मुझे क्या पहचान पाएगा ,
है वह मेरा अतीत ,
जिसने मिलना भी ना चाहा ,
वर्तमान में भी उसे,
मेरी याद नहीं आई ,
है यह कैसी रुसवाई ,
मेरा समर्पण याद नीं आया ,
ख्यालों की दुनिया सीमित की ,
खुद ही तक सीमित रहा ,
मेरा ख्याल नहीं आया ,
सीमाएं छोड़ नहीं पाया ,
खोया रहा अपने में ,
मुझे अधर में लटकाया ,
था वह मेरा अतीत ,
जुड़ा हुआ था बचपन से ,
यदि वर्त्तमान में भी होता ,
दुःख मुझे कभी ना होता ,
मैं उसी तरह प्यार करती ,
अपनाती स्नेह देती ,
खोया हुआ जब भी मिलता ,
अपनेपास छिपा लेती ,
पर वह मुझे समझ ना पाया ,
वफा का मोल न कर पाया ,
यदि वह पहचान लेता ,
कुछ तो मेरा साथ देता ,
गैरों सा व्यवहार न करता ,
मेरे साथ न्याय करता |
आशा

07 अक्तूबर, 2010

प्रतिमा सौंदर्य की

प्रातः से संध्या तक ,
वह तोड़ती पत्थर ,
भरी धुप मै भी नहीं रुकती ,
गति उसके हाथों की ,
श्रम कणों की अपूर्व आभा ,
दिखती मुख मंडल पर ,
फटे कपड़ों में लिपटी लाज की गठरी सी ,
लगती है किसी शिल्पी की अनोखी कृति सी ,
महनत से बना सुडौल तन
छन छन कर झांकता अल्हड़ यौवन,
सावला सलोना रंग ,
है वह अनजान अपने रूप से ,
वह भोलापन और आकर्षण ,
ओर सुराही सी गर्दन ,
जो सजी है ,कच्चे कांच के
मनकों की माला से ,
वह जैसे ही झुकती है तगारी उठाने के लिए ,
भंगिमा उसकी लगती प्रस्तर प्रतिमा सी ,
लगता है वह,
इतना वजन कैसे उठा पाएगी ,
तगारी रख सिर पर सरलता से ले जाती है ,
उसका मुखर होना हंसना ओर गुनगुनाना ,
विस्मृत कर देता है ,
फटे कपड़ों में छिपे तन को ,
लगने लगती है ,
स्वर्ग की किसी अप्सरा सी ,
आकृष्ट करती अपनी सुंदरता से ,
जो देन है प्रकृति नटी की ,
चाहता उसे अपलक निहारना ,
अप्रतिम सौन्दैर्यकी मिसाल समझ ,
उसके सम्मोहन में खो जाना ,
सरलता सहजता और भोलापन ,
भराहुआ है कूट कूट कर ,
मजदूरी मिलते ही चेहरे पर भाव,
संतुष्टि का आता है ,
सारी थकान भूल चल देती है डेरे पर ,
पुनः सुबह होते ही काम पर आ जाती है ,
महनत का दर्प चेहरे पर लिए ,
नया उत्साह मन में लिए |
आशा

06 अक्तूबर, 2010

तुम सामने क्यूँ नहीं आते

तुम सामने क्यूँ नहीं आते ,
मुंह छुपाए रहते हो ,
रातों की नींद ,
चुरा लेते हो ,
यह सजा रोज,
क्यूँ देते हो ,
सपनों में कई रंग ,
दिखाते रहते हो ,
होते ही सुबह ,
मैं व्यस्त हो जाती हूं ,
अपने आप में ,
खो जाती हूं ,
अक्सर भूल जाती हूं ,
क्या क्या देखा रात्रि में
कुछ बातें ही,
याद रह पाती हें ,
मिलते लोग ,
जो स्वप्नों में ,
दिन में भी ,
दिखाई देते हें ,
आदान प्रदान विचारों का ,
उनसे भी होजाता है ,
क्यूँ कि वे,
परिचित होते हें ,
पर तुम्हारे साथ,
ऐसा नहीं है ,
हर रात तुम आते हो ,
ना जाने हो कौन ,
मुझे बेचैन,
कर जाते हो ,
तुम्हें पहचान नहीं पाती ,
सोचती हूं ,
पर याद नहीं आते ,
किस बात की सजा ,
हर बार मुझे देते हो ,
हूं यदि दोषी तुम्हारी ,
तो सजा देने,
ही आजाओ ,
मुझे अपने स्वप्नों से ,
मुक्त तो कर जाओ ,
कभी लगता हैमुझे ,
अचेतन मन की ,
उपज तो नहीं ,
जिसमे कई स्मृतियां
दबी होती हें ,
जब रात्रि में होताहै ,
वह सक्रीय ,
विस्मृतियाँ होती सजीव ,
कहीं तुम उनमें से,
एक तो नहीं |
आशा

05 अक्तूबर, 2010

कवि

रहता भावना के समुद्र में ,
जीता स्वप्नों की दुनिया में ,
गोते लगाता ,
ऊपर नीचे विचारों में ,
सुख हो या दुःख ,
उन्हें दिल से लगाये रहता ,
संबल ह्रदय का देता ,
कैसी भी छबी क्यूँ ना हो ,
ह्रदय में उतार लेता ,
शब्द जाल बुनता रहता ,
वह स्वयं नहीं जानता ,
जानना भी नहीं चाहता ,
वह कहाँ खोया रहता है ,
किस दुनिया में रहता है ,
जैसे स्वप्न रंगीन होते हें ,
तो कभी बेरंग भी ,
जीवन उसका भी होता है ,
कभी रंगीन,
तो कभी बे रंग ,
सामान्य बहुत कम रहता है ,
मन की बात किसी से,
कहना भी नहीं चाहता ,
किसी से बांटना भी नहीं चाहता ,
होती अधिक अकुलाहट जब ,
एकांत में घंटों ,
गुमसुम बैठा रहता है ,
अपने में खोया रहता है ,
एकाएक उठता है,
लिखना प्रारम्भ करता है ,
नयी कविता का ,
सृजन करता है ,
कुछ होती ऐसी ,
जो दिल को छू जाती हें ,
पर कुछ तो ,
सर पर से गुजर जाती हें ,
उसे समझना सरल नहीं ,
होता व्यक्तित्व दोहरा उसका ,
लेखन में कुछ झलकता है ,
और वास्तव में ,
कुछ और होता है ,
आकलन ऐसे व्यक्तित्व का ,
कैसे किया जाए ,
परिभाषित 'कवि 'शब्द को ,
कैसे किया जाए ||
आशा

04 अक्तूबर, 2010

सहनशीलता

सरल नहीं सहनशील होना ,
इच्छा शक्ति धरा सी होना ,
है धरती विशाल फिर भी ,
नहीं दूर अपने कर्त्तव्य से ,
सतत परिक्रमा करती सूर्य की ,
फिर भी नहीं थकती ,
देता है शीतलता उसे चंद्र ,
पर आदित्य से डरता है ,
जैसे ही उसे देखता है ,
जाने कहां छिप जाता है ,
गर्मी सर्दी और वर्षा ,
सभी सहन करती है ,
जन्म से आज तक ,
धधकती आग ,
हृदय में दबाए बैठी है ,
जलनिधि रखता,
सारा बोझ उसी पर ,
वहन उसे भी करती है ,
चांद सितारों की बातें की सबने ,
पर उसे किसी ने नहीं जाना ,
ना ही ठीक से पहचाना ,
जब कभी विचलित होती है ,
हल् चल उसमें भी होती है ,
ज्वालामुखी धधकते हें ,
क्रोध प्रदर्शित करते हें ,
वह अशांत सी हो जाती है ,
वह फिर यह सोच,
शांत हो जाती है ,
जो जीव यहां रहते हें ,
उसके आश्रय में पलते हें ,
आखिर उनका क्या होगा ?
उस जैसा धीर गंभीर होना ,
इतना सरल नहीं है ,
सहनशीलता उसकी अनोखी ,
जो अनुकरणीय है |
आशा |

03 अक्तूबर, 2010

वह नहीं जानता ,

अनेक दर्द दिल में छिपाए उसने ,
है ऐसा क्या उन में ,
बांटने से भी डरता है ,
उन पर चर्चा,
से भी हिचकता है ,
कई बार लगता है ,
बांटने से दिल का बोझ ,
किसी हद तक कम हो सकता है ,
पर यदि वह ना चाहे ,
कोई क्या कर सकता है ,
शायद वह नहींसीख पाया ,
मिलजुल कर रहने की आदत ,
नहीं पहचान पाया ,
जीवन में उसकी जरूरत ,
यही कारण दीखता है ,
किसी से साँझा नही करता ,
खुद भी अकेला रहता है ,
गम के दरिया में बहता रहता है ,
उदासी पीछा नहीं छोडती ,
वीरान जिंदगी लगती है ,
आवश्कता मित्रों की ,
महत्व उनके होने का ,
जब वह समझ पाएगा ,
विचारों का सांझा करेगा ,
तब बोझ दिल पर ना होगा ,
मित्रों में बात जाएगा ,
वह प्रसन्न रह पाएगा |
आशा

02 अक्तूबर, 2010

हें हम सब एक

अँग्रेज जब होने लगा कमजोर ,
कुछ नेताओं से हाथ मिलाया ,
टुकड़े देश के करवाए ,
बीज ऐसे बोए नफरत के ,
बड़े हुए, वृक्ष बने कटीले ,
काँटों से दिल छलनी कर गए ,
जब बटवारा होने को था ,
खेली गई खूनी होली ,
परिवार अनेकों उजड गए,
कई बच्चे अनाथ हो गए ,
मन मैं बैर ऐसा पनपा ,
पीछा अब तक छूट न पाया ,
चाहे कोई बहाना हो ,
देश अशांत होता आया ,
जिनमे समझ है पढेलिखे हें ,
वे तक जान नहीं पाए ,
किस धर्म में है ऐसा ,
मनुष्य मनुष्य का,
दुश्मन होजाए ,
होता है धर्म व्वाक्तिगत ,
है व्यर्थ उसे मुद्दा बनाना ,
वह किस धर्म को मानता है ,
चेहरे पर लिखा नहीं है ,
जीवन की समाप्ति पर ,
शरीर नष्ट हो जाता है ,
होता विलीन पञ्च तत्त्व में ,
केवल अच्छे कर्म ,
याद किये जाते हें ,
वह था किस धर्म का ,
चर्चा नहीं होती ,
जमीन में दफनाया जाए ,
या अग्निदाह किया जाए ,
या बहा दिया जाए ,
किसी जल धारा में ,
क्या फर्क पडता है ,
जाने वाला तो चला गया ,
यह संसार छोड़ गया ,
फिर जीते जी क्यूँ ,
हों हंगामे इतने ,
भाई भाई न रहे ,
दुश्मनी पले हर ओर फैले ,
हो जब भी आवश्यकता ,
एक जुट होने की ,
नासमझी आड़े ना आए ,
देश के हर कौने से,
आवाज उठे सब कहें ,
हें हम सब एक ,
है देश हमारा एक |
आशा

30 सितंबर, 2010

घुमक्कड़

हूं एक घुमक्कड़ ,
घूमना अच्छा लगता है ,
घना जंगल बहता झरना ,
घंटों वहाँ बैठे रहना ,
मन को शान्ति देता है ,
देखा जब दूरस्थ ग्राम ,
कच्ची पगडंडी पहुँच मार्ग ,
छोटे २ माटी के मकान ,
इच्छा हुई वहां जाऊं ,
अधनंगे खेलते बच्चे ,
रिक्त पड़ा शाला परिसर ,
साम्राज्य पंक का चारों ओर ,
निष्क्रीय बैठे शिक्षक ,
है कैसी दुर्दशा शिक्षा की ,
मन दुखित हुआ
और चल दिया ,
किसी नई जगह की तलाश में ,
जा पहुँचा कंजरों के गाँव में ,
चोरी डाका जिनका काम ,
पड़ने लिखने से दूर बहुत ,
अपना धंधा करते पसन्द ,
भय भीत सदा ही रहते हें ,
बच्चों को शाला भेजने में ,
होता वह दिन सौभाग्य का ,
जब कोई बच्चा शाला आता ,
है श्याम पट कोरा ,
ऐसा अवसर कभी न आया ,
कि 'आ ' भी कभी लिखा जाता ,
कोई नोनिहाल पढ़ने आता ,
कदम मेरे थकने लगते हें ,
फिर भी बढ़ता जाता हूं ,
कुछ नया देखने की चाह में ,
आ गया हूं नए ग्राम में ,
है दृश्य बड़ा मनोहर ,
लिपे पुते कच्चे मकान ,
बने हुए मांडने जिन पर ,
है यह आदिवासियों का ग्राम ,
हुआ बहुत शोषण उनका भी ,
पर अपने ढंग से जीते हें ,
शाम ढले सभी एकत्र हो ,
मनोरंजन में डूब जाते हैं ,
गायन वादन और नर्तन ,
थिरकते कदम ताल पर ,
मन उनमे खो जाता है ,
उनमे रमता जाता है ,
रुकना मानसिकता नहीं मेरी ,
एक ओर चल देता हूं ,
दूधिया प्रकाश में नहाता ,
एक शहर दिखाई देता है ,
जीवन है गतिमान यहाँ ,
बड़ी बड़ी अट्टालिकाएं ,
शरण स्थली लोगों की ,
हें सभी व्यस्त अपने अपने में ,
पर पास की झोपड पट्टी में ,
कई अपराध जन्म लेते हें ,
पनपते हें पलते हें ,
यह देख मन उचटने लगता है ,
फिरसे चलना चाहता हूं ,
कल कल करते जल प्रपात तक ,
बैठ जहां प्रकृति के आंचल में ,
फिरसे मनन करू उन सब पर ,
जो जैसे हें वही रहेंगे ,
या कोई परिवर्तन होगा ,
यदि शिक्षा पर ध्यान दिया जाए ,
शायद कोई परिवर्तन आए |
आशा

29 सितंबर, 2010

दीवाने

यहाँ आते हैं बैठते हैं
करते बातें आपस में
हैं मित्र बहुत गहरे
अनुभव बांटते हैं
हैं तो सब कलाकार
पर रहते अपनी धुन में
कला में खोए रहते
कहते हें कुछ न कुछ
कभी बात पूरी होती है
कभी अधूरी रह जाती
वह है एक शिल्पकार
कुछ कहता है
रुक जाता है
लगता है
छेनी हतोड़ीं चला रहा
कोई मूरत बना रहा
मंद मंद मुस्काता
मन की बात बताता
यह कला नहीं इतनी आसान
वर्षों लग गए है
पर चाहता हं जो
पा नहीं पाता
बात अभी अधूरी थी
आकाश देख चित्रकार
प्रसन्नवदन मुखरित हुआ
जाने क्या सोचा
तन्मय हो बोल उठा
वाह! प्रकृति भी है क्या
नित नई कल्पना
मुझे व्यस्त कर देती है
हाथोंसे देते ताल
गुनगुनाते संगीतकार
कैसे चुप रह जाते
हलके से मुस्करा कर बोले
लो सुनो नई बंदिश
है नया इसमें कुछ
नर्तक बंदिश में खोने लगा
अभिव्यक्ति नयनों से
और हाथों का संचालन
लगा अभी उठेगा
अपनी भाव भंगिमा से
बंदिश को अजमाएगा
पर ऐसा कुछ नहीं होता
आधी अधूरी हें सब बातें
सब अपने में खोए रहते
कुछ समय ठहर
चल देते हें
कुछ लोग उन्हें
पागल कहते हें
हँसते भी हें
कई लोग समझते
दीवाना उन्हें
पर वे यह नहीं जानते
सब हें कलाकार और निपुण
अपने अपने क्षेत्र मैं |

आशा

28 सितंबर, 2010

तुझे समझना सरल नहीं है

रहता नयनों का भाव ,
एकसा सदा,
ना होता परिवर्तन मुस्कान में ,
और ना कोई हलचल ,
भाव भंगिमा में ,
लगती है ऐसी ,
जैसे हो मूरत एलोरा की ,
स्पर्श का प्रसंग आते ही ,
पिघलने लगती है ,
मौम सी ,
प्रस्तर प्रतिमा कहीं,
विलुप्त हो जाती है ,
समक्ष दिखाई देती है ,
चंचल चपला सी ,
हो जाती है ,
मोम की गुड़िया सी ,
कितना अंतर दिखता है ,
तेरे दौनों रूपों में ,
तुझे समझना सरल नहीं है ,
मनोभावों का आकलन,
बहुत कठिन है,
क्या सोचती है ?
क्या चाहती है ?
बस तू ही जानती है ,
है इतना अवश्य ,
न्रत्य में जान डाल देती है ,

आशा

27 सितंबर, 2010

यादें मिटती नहीं

कविसम्मेलन जब भी होते थे ,
उत्सुक्ता रहती थी ,
कुछ लोगों को सुनने की ,
उनमें से थे वे एक ,
इतनी गहराई से लिखते थे ,
उस में ही खो जाते थे
जब मंच पर आते थे ,
सब मंत्र मुग्ध हो जाते थे ,
कर्तल ध्वनि रुकती न थी ,
"एक बार और " का स्वर ,
पंडाल मैं छा जाता था ,
वह मधुर स्वर उनका ,
भाव विभोर कर जाता था ,
भोर कब हो जाती थी ,
पता नहीं चल पाता था ,
पहली बार सुना जब उनको ,
सब ने बहुत सराहा था ,
मैने अपनी अभिरुचि का भी ,
भान उन्हें कराया था ,
मित्रता जाने कब हुई ,
अब याद नहीं है ,
प्रायः साथ रहते थे ,
रचनाओं में खोए रहते थे ,
कविता की गहराई के लिए ,
जब भी प्रश्न किया मैने ,
एक ही उत्तर होता था ,
"जब दर्द ह्रदय में होता है ,
कोई मन छू लेता है ,
तभी नया सृजन होता है ",
जाने कब अनजाने में ,
व्यवधानों का क्रम शुरू हुआ ,
कई बाधाएं आने लगीं ,
दिन से सप्ताह और फिर महिने,
बिना मिले गुजरने लगे ,
नई रचना जब पढ़ने को न मिली ,
सोचा क्यूँ न समाचार ले लूँ ,
वे शहर छोड़ चले गए थे ,
बिना बताए चले गए थे ,
खोजा बहुत पर मिल ना पाए ,
बार बार विचार आया ,
मैं क्यूँ संपर्क ना रख पाया ,
दिन बीते,मांस बीते ,
और साल भी गुजर गया ,
भागता कब तक मृगतृष्णा के पीछे ,
उस पर भी विराम सा लग गया ,
आज था एक लिफाफा हाथ में ,
डाकिया दे गया था ,
जैसे ही पत्र खोला ,
मन झूम उठा ,मालूम है क्यूँ ?
यह पत्र उन्हीं का था ,
जिसमे लिखा था ,
"मैं बहुत व्यस्त हो गया हूं ,
संपादक जो हो गया हूं ,
अब सृजन नहीं करता ,
स्वयं कहीं गुम हो गया हूं ,
क्षमा करना मित्र मेरे ,
तुम्हें बता नहीं पाया ,
जब शहर छोड़ यहाँ आया ,
यादें कभी मिटती नहीं हैं ,
मिलने की ललक जगाती हैं ,
बेचैन मुझे कर जाती हैं ,
हूं बहुत व्यस्त ,
संपादक जो होगया हूं "|
आशा

25 सितंबर, 2010

एक कहानी यह भी

आगे बढ़ते कदम ,
समय के साथ बिताए लम्हें,
तरह तरह के अनुभव ,
और संबंध उनका जीवन से ,
कहते हें कहानी जीवन की ,
जो है बड़ी रूहानी ,
है संबंध इतना गहरा ,
कि छोड़ जाता है निशान,
समय की रेत पर ,
है कठिन कहना ,
क्या उकेरा गया है निशान पर ,
होता जीवन कभी,
गर्म जल की धारा सा ,
कभी ठंडे जल के प्रवाह सा ,
कभी कठिनाई से भरा हुआ ,
समस्याओं से घिरा हुआ ,
जूझता अपने अस्तित्व के लिए ,
होता कभी खुशियों से भरा ,
रंगबिरंगी सतरंगी स्मृतियों सा ,
तब सहज भाव से आगे बढ़ता है ,
दुनियादारी से दूर बहुत ,
पर है एक विलक्षण गुण उसमे ,
जिस पर कभी सोचा न गया ,
देखा अडिग विश्वास और समर्पण ,
साथ ही देखी निष्ठा उसमे ,
वह बेवफा नहीं होता ,
दर्द ए दिल सहन करता है ,
तो कभी स्नेह बांटता है ,
वह उस दिन से साथी है ,
जब पहले कदम पड़े धरती पर ,
साथ निभाता है अंत तक ,
यही उसका वादा है,
हर सांस के साथ आगे बढ़ता है ,
सदा साथ रहता है ,
जैसे ही काया मुक्त होती है ,
कुछ ठहराव आता है ,
पर है वह कर्मठ ,
अधिक समय नहीं रुकता ,
और कहीं चला जाता है |
आशा

24 सितंबर, 2010

हूं एक प्रवासी

हूं एक प्रवासी ,
आया हूं बहुत दूर से ,
साथियों को साथ ले ,
भोजन की तलाश में ,
अपना देश छोड़ आया ,
मौसम था विपरीत वहां ,
यहाँ अभी मौसम अच्छा है ,
लगता है अनुकूल हमें ,
भोजन भी मिल ही जाता है ,
कभी कम तो कभी अधिक ,
कम में भी गुजारा हो जाता है ,
होता है शांति का अनुभव ,
खोजते भोजन कभी ,
तो कभी प्रसन्न होते चहकते ,
दिन यूँ ही बीत जाता है ,
होती है थकान इतनी ,
रात्रि कहां बीत जाती है ,
पता ही नहीं चलता ,
विश्रान्ति के बाद ,
भोर होते ही चल देते हैं ,
होता जीवन क्रम पहले सा ,
आज न जाने कैसे मैं छूट गया,
रह गया बहुत पीछे ,
बाकी सब आगे निकल गए ,
अकेले रहना है मुश्किल ,
डर भी बहुत लगता है ,
ढूँढ रहा हूं साथियों को
सब जाने कहाँ चले गए ,
खोज रहा हूं ऐसा साथी,
जिसने देखा हो देश मेरा ,
वह मेरा साथ निभाए ,
जब भी मैं बापिस जाऊं ,
साथ मेरे ही वह जाए ,
जैसे ही ऋतु में परिवर्तन होगा ,
रहना वहां कठिन ना होगा ,
याद आ रही है मुझको ,
अब अपने देश की ,
जहां जन्मा और बड़ा हुआ ,
पला बढा परवान चढ़ा
मन के हर कौने में बसा है ,
अपना देश अपना होता है ,
हो आवश्यकता ,
या भोजन की तलाश ,
चाहे जहां भी जाएँ ,
पर वहीँ लौट कर आते हैं ,
है कारण बहुत छोटा सा ,
पर महत्व बहुत रखता है ,
प्यार और अपनत्व ,
केवल वहीँ मिलता है ,
सब साथी बिछुड गए है ,
पर सब लौट कर जाएंगे ,
फिर वहीँ मिल पाएंगे |
आशा

23 सितंबर, 2010

है जन्म दिन छोटे का

कल है जन्म दिन छोटे का ,
बार बार प्रश्न करता है ,
मां तुम केक कब लाओगी ,
मेरे लिए क्या बनाओगी ,
इस बार जींस लाना ,
नया शर्ट भी दिलवाना ,
अभी वह नहीं जानता ,
महंगाई क्या होती है ,
गरीबी किसे कहते हैं ,
घर की हालत ऐसी क्यूँ है?
उसके प्रश्न सुन कर ,
दिल छलनी होने लगता है ,
रोने को मन करता है ,
वह सोचने लगती है ,
कैसे उसे संतुष्ट करे ,
उसकी सालगिरह कैसे मनाए ,
सड़क पूरी सूनी है,
काफी रात बाकी है ,
भारी कदम लिए खड़ी थी ,
सोच रही थी कल क्या होगा ,
एक कार पीछे से आई ,
ड्राइवर ने होर्न बजाया ,
बेध्यानी में सुन ना पाई ,
गति थी गाड़ी की धीमी ,
चोट तो लगी पर मृत्यु ना आई ,
कार वाला डर गया था ,
पांचसौ का नोट निकाला ,
उस पर फेंका और चल दिया ,
जैसे तैसे घर को आई ,
अपनी चोटों को सहलाया ,
पर वह यह सोच खुश थी ,
कल सालगिरह तो मन पाएगी ,
प्रश्नों की झड़ी से तो बच पाएगी ,
चोटों का क्या वे तो,
ठीक हो ही जाएंगी|
आशा

22 सितंबर, 2010

मैं गुनगुनाता हूं

मैं गुनगुनाता हूं ,
गीत गाता हूं ,
कभी अपनों के लिए ,
कभी गैरों के लिए ,
जब किसी दिल को छू जाता है ,
एक आह निकलती है ,
सर्द सर्द होंठों से ,
यूँ सुनाई नहीं देती ,
पर खो जाती है नीलाम्बर में ,
घुल मिल जाती है उस में ,
लेखन और गायन मेरी आदत नहीं है ,
है एक गुबार मेरे दिल का ,
ह्रदय के किसी कौने से निकली आवाज ,
कई बार मुझे बहकाती है ,
शब्द खुद ही प्रस्फुटित होते हैं ,
गीतों की माला बनती जाती है ,
आवाज का सानिद्ध्य पा ,
गीत जीवंत हो जाते हैं ,
जाने कितनों के मन छू जाते हैं ,
ना सुर ना ताल ,
फिर भी वह दर्द जो छुपा था ,
बरसों से दिल में ,
कई बार उभर कर आता है ,
ले शब्दों का रूप मुझे छलता है ,
मैं नहीं जानता,
है यह सब क्या ,
ना ही गीतकार बनने की ,
तमन्ना रखता हूं ,
पर मेरे अपने ,
संग्रहित उन्हें कर लेते हैं ,
कई बार पिछले गीतों की ,
याद दिलाते हैं ,
उन्हें सुनना चाहते हैं ,
दर्द ह्रदय का,
और उभर कर आता है ,
कई रचनाओं का,
कलेवर बन जाता है ,
मैं कोई धरोहर गीतों की ,
छोड़ना नहीं चाहता ,
पर आवाज कहीं,
दिल के भीतर से आती है ,
उसे ही शब्दों में पिरोता हूं ,
वही मेरा गीत है ,
वही मेरी प्रेरणा है |
आशा

21 सितंबर, 2010

सम्मोहन

यह प्यार है अनजानों का ,
है अहसास चंद लम्हों का ,
कैसा अजीब सा आकर्षण ,
या है कोई सम्मोहन ,
मैने जब से उसे देखा है ,
मेरे उसके बीच रिश्ता क्या है ,
मैं नहीं जानता ,
पर जब भी देखता हूं उसे ,
कभी दूर से तो कभी पास से ,
सोचता हूं देख उसे ,
देखता ही रहूँ किसी तस्वीर की तरह ,
भूले से भी कोई छू न ले ,
कहीं मैली ना हो जाए ,
चाहता हूं यह सिलसिला,
अनवरत चलता रहे ,
है वह भी शायद मुझ जैसी ,
लटें मुंह पर बिखेरे ,
जब पास से गुजरती है ,
हल्का सा झटका दे उन्हें ,
स्मित हास्य से ,नयनों से ,
मुझे अंदर तक छू जाती है ,
पर एक शब्द भी नहीं कहती ,
मन में छिपी भावना को ,
ओंठों तक आने नहीं देती ,
आज तक कभी ,
आमना सामना न हुआ ,
शब्दों का आदान प्रदान न हुआ ,
पर बहुत गहराई तक ,
उतर गई है वह ,
मेरे मन के अंदर ,
हर ओर छा गई है ,
सावन की घटा बन कर ,
लगता है हम दौनों में ,
कोई अटूट रिश्ता है ,
और न जाने कब तक रहेगा ,
यदि है यह प्रेम का बंधन ,
मुझे भय है ,
यह स्थाई न होगा ,
इस पुष्प की सुगंध को ,
कहीं समय की आंधी ,
उड़ा न ले जाए ,
यह अधूरा ही न रह जाए ,
फिर वह ना जाने कहाँ होगी ,
मैं भी कहीं खो जाउंगा ,
तब आँखों की यह भाषा ,
दर्द का यह रिश्ता ,
बहुत दूर की बात होगी ,
हमारे अनजाने प्रेम की कहानी ,
न जाने कहाँ खो जाएगी ,
मैं इसे किस्मत कहूं या कुछ और ,
जहां भी गया ,
खाली हाथ ही आया हूं ,
इस वीराने में |
आशा

20 सितंबर, 2010

प्रतीक्षा

ऊन और सलाई ले हाथों में ,
बैठी थी कुनकुनी धुप में ,
जाने किस उधेड़बुन में ,
ना जाने क्या सोच रही थी ,
जैसे ही कुछ बुनती थी ,
सोच सोच मुस्काती थी ,
आने वाले की तैयारी में ,
कुछ अधिक व्यस्त हो जाती थी ,
कभी बेटी या बेटा चुनती थी ,
या प्यारा सा नाम सोचती थी ,
फिर भी चिंता,
साथ न छोड़ पाती थी ,
कारण जब भी जानना चाहा ,
शर्मा कर लाल हो जाती थी ,
पर चेहरे पर चिंता की लकीरें ,
यह साफ बयानी करती थीं ,
मन में छिपी बेचैनी ,
चेहरे पर आती जाती थी ,
प्रसव पूर्व भय मन का ,
उजागर करती थी ,
शायद यही कारण होगा ,
वह सहज नहीं हो पाती थी ,
हाथों में सलाई की गति,
और तेज हो जाती थी ,
जब एक फंदा उतरता था ,
कई प्रश्नों से घिरा ,
स्वयं को पाती थी ,
डरती थी यदि बच ना पाई
तब आने वाले का क्या होगा ,
और यदि वह ना आ पाया ,
इस तैयारी का क्या होगा ,
मन करता था पास बैठूं ,
प्यार से उसे समझाऊं ,
जब तक चिंता मुक्त ना होगी ,
स्वस्थ शिशु कैसे पाएगी ,
अपना सारा प्यार,
किस पर लुटाएगी |

आशा

19 सितंबर, 2010

हर श्वास कुछ कहती है

साँसें लेते हैं अनगिनत,
जन्म से मृत्यु तक ,
उनको गिनना है कठिन ,
पर हर श्वास कुछ कहती है ,
ध्यान नहीं जाता ,
बच्चा मुस्कराता है ,
ठुमक ठुमक कर चलता है ,
दौडता है भागता है ,
तेज तेज सांसें लेता है ,
माँ बहुत खुश होती है ,
वह गहरी सांस ले रहा है .
जल्दी बड़ा हो रहा है ,
सर्दी हो या बेचैनी हो ,
माँ चिन्तितं हो जाती है ,
नन्हे की सुरक्षा के लिए |
मृगनयनी अभिसारिका ,
यौवन से परिपूर्ण प्रेयसी ,
जब सन्मुख होती है ,
साँसे चौगुनी हो जाती है ,
मन को स्पंदित कर जाती हैं ,
जैसे ही वह मुड़ती है ,
मन आकुल हो जाता है .
गति साँसों की
धीमी हो जाती है |
यदि क्रोध पर संयम ना हो ,
और मन का आपा खो जाए ,
तब श्वास तीव्र हो जाती है ,
गर्म श्वास क्षति पहुचाती है |
कभी समस्या भी हो जाती है
वृद्धावस्था में क्षय होती साँसें ,
बार बार चेताती हैं ,
यदि ध्यान न दिया गया ,
क्षतिपूर्ति संभव नहीं होती ,
अंतिम श्वास आते ही ,
दीपक की लौ भभकती है ,
फिर अपार शान्ति छा जाती है ,
मृतु पाश मैं बंध कर,
चली जाती है जिंदगी जाने कहाँ,
और थम जाता है,
साँसों का सफर ,
और श्वास मौन हो जाती है |
आशा

18 सितंबर, 2010

था विश्वास मुझे तुम पर

इस अजनवी शहर में ,
जब रखे थे कदम ,
मुझे कुछ नया नहीं लगा था ,
जानते हो क्यूँ ,
तब तुम मेरे साथ थे ,
था अटूट बंधन विश्वास का ,
सब कुछ पीछे छोड़ आई थी ,
साथ जीने मरने की,
कसमें भी खाई थीं ,
पर थी मैं गलत ,
तुम्हें समझ नहीं पाई ,
केवल सतही व्यवहार को ही,
सब कुछ जान बैठी ,
तुम इतना बदल जाओगे ,
आते ही भटक जाओगे ,
मुझ से दूर होते जाओगे
कभी सोचा न था ,
तुम पर आस्था कर बैठी ,
अपना सर्वस्व लुटा बैठी ,
हूं बर्बादी के कगार पर,
ना धन ना कोई वैभव ,
बहुत हैरान हूं ,
परेशान हूं ,
शर्मिंदगी अपने लिए ,
मन में समेटे बैठी हूं ,
अब तुम गैर लगते हो ,
पास होते हुए भी,
अपने नहीं लगते ,
शहर अजनवी लगता है ,
हूं मैं एक रिक्त पड़ा मकान ,
जिस पर अनाधिकार ,
कब्जा जमाए बैठे हो |
आशा

17 सितंबर, 2010

एक कवि ऐसा भी

जब भी कुछ लिखता है ,
उसे सुनाना चाहता है ,
कुछ प्रोत्साहन चाहता है ,
पर कोई श्रोता नहीं मिलता ,
जब तक सुना नहीं लेता ,
उसे चैन नहीं आता ,
कोई भूल से फँस जाए ,
कविता सुनना भी ना चाहे ,
बार बार उसे रोक कर,
कई बहाने खोज खोज कर ,
कविता उसे सुनाता है ,
तभी चैन पाता है ,
भूले से यदि मंच पर ,
ध्वनिविस्तारक हाथ में आजाए ,
चाहे श्रोताओं का शोर हो ,
या तालियों कि गड़गड़ाहट,
कुछ अधिक जोश में आ जाता है ,
कविता पर कविता सुनाता है ,
अपने लेखन पर मुग्ध होता ,
कविसम्मेलन कि समाप्ति पर ,
पंडाल खाली देख सोचता,
अभी भीड़ आएगी उसे बधाई देने ,
पर ऐसा कुछ नहीं होता ,
केवल एक पहलवान वहां है ,
उससे प्रश्न करता है ,
कैसा लगा कविसम्मेलन ,
और मेरा कविता पाठ ,
वह तो जैसा था सो था ,
मैं उसे ढूँढ रहा हं ,
जिसने तुम्हें बुलाया था ,
वह आज भी आशान्वित है ,
कहीं से तो बुलावा आएगा ,
कोई उसे सराहेगा |
आशा

16 सितंबर, 2010

बहुत वेदना होती है ,

बहुत वेदना होती है ,
जब कोई बिछुड जाता है,
सदा के लिए चला जाता है ,
बस रह जाती हैं यादें ,
हर क्षण याद आता है ,
मन व्यथित कर जाता है ,
उसका भोला पन ,
और चंचल चितवन ,
इधर उधर थिरकते रहना ,
जब भी पास से गुजरे ,
धीरे से पीछे आना ,
अपने इर्द गिर्द ही पाना ,,
अनगिनत झलकियां उसकी ,
मस्तिष्क पटल पर छा जाती हैं .,
बार बार रुला जाती हैं ,
हर आंसू श्रद्धान्जली बनता है ,
अंजुली भर फूल बनता है ,
उस पर चढा दिया जाता है ,
वह बहुत याद आता है ,
उसकी अदाओं की,
याद भर बाकी रह गई है ,
वह तो शायद भूल गया हो ,
हम उसे भुला नहीं पाते ,
हर पल उसके पीछे ,
साये कि तरह ,
भागना चाहते हैं ,
पर मंजिल तक,
पहुच नहीं पाते ,
वह कहीं शून्य मैं,
विलीन हो गया है ,
हमसे दूर बहुत दूर,
चला गया है |
आशा

14 सितंबर, 2010

यह तो नियति है मेरी

जलना और जलाना है प्रकृति मेरी ,
है आधार मेरे जीवन का ,
मैं सब के काम आती हूं ,
घरों में कल कारखानों में ,
जलती हूं सहयोग करती हूं ,
कभी कष्टों का कारण ,
भी हो जाती हूं ,
हवा और गर्मी ,
सदा मुझे उकसाते हैं ,
वे दौनों हैं बैरी मेरे ,
सोते से जगाते हैं ,
जंगल में हो रगड,
यदि सूखी लकडियों की ,
या शुष्क घास में हो घर्षण ,
मैं सोते से जग जाती हूं ,
घघकती हूं ,उग्र हो जाती हूं ,
होता तवाही पर विराम कठिन ,
जब मुझे बुझाया जाता है ,
ह्रदय से गुबार निकलता है ,
गहरे काले भूरे रंग का,
धुँआ निकलने लगता है ,
घुटन जो छिपी थी मन में ,
जैसे ही बाहर आती है ,
करती हूं शान्ति का अनुभव ,
पानी बर्फ और ठंडी बयार
हैं अन्तरंग मित्र मेरे,
पा कर साथ इनका ,
कहीं दुबक कर सो जाती हूं ,
जब तक उकसाया नहीं जाता ,
मैं नहीं धधकती ,
कोई नुकसान नहीं करती ,
यह तो नियति है मेरी ,
सृष्टि ने जिसे जैसा स्वभाव दिया,
थोड़ा परिवर्तन हो सकता है ,
पर बदलाव मूल प्रवृत्ति में ,
कभी संभव होता नहीं ,
विधाता ने बनाया जिसको जैसा ,
वह वैसा ही रहता है |

आशा

12 सितंबर, 2010

पिंजरे में बंद एक पक्षी

कभी स्वतंत्र विचरण करता था ,
चाहे जहां उड़ता फिरता था ,
जीने की चाह लिए एक पक्षी ,
जब पिंजरे में कैद हुआ था ,
बहुत पंख फड़फड़ाए थे ,
खुले व्योम में उड़ने के लिए ,
मन चाहा जीवन जीने के लिए ,
अपनों से मिलने के लिए ,
अस्तित्व अक्षुण्य रखने के लिए ,
पर सारे सपने बिखर गए ,
हो कर इस पिंजरे में बंद ,
मन ने यह बंधन भी,
स्वीकार कर लिया ,
फिर जब भी पिंजरे का द्वार खुला ,
बाहर जाने का मन न किया ,
शायद भय घर कर गया था ,
बाहर रहती असुरक्षा का ,
पर कुछ समय बाद ,
एक रस जीवन जी कर ,
मन में हलचल होने लगी ,
जब दृष्टि पड़ी उसकी,
अम्बर में विचरते पक्षियों पर ,
स्वतंत्र होने की लालसा ,
बल वती पुनः होने लगी ,
भय का कोहरा छटने लगा ,
ऊर्जा का आभास होने लगा ,
हों चाहे जितनी सुविधाएं ,
और बना हो सोने का ,
पर है तो आखिर पिंजरा ही ,
स्वतंत्रता की कीमत पर ,
क्या लाभ यहाँ रहने का ,
अब समय बर्बाद न कर के ,
बंधक जीवन से मुक्ति पा ,
नीलाम्बर में उड़ना चाहे ,
नए नए आयाम चुने ,
उनमे अपना स्थान बनाए ,
जैसे ही पिंजरे का द्वार खुला ,
बिना समय बर्बाद किये ,
उसने तेज उड़ान भरी ,
पास के वृक्ष की डाली पर ,
बैठ स्वतंत्रता की खुशी में ,
एक मीठी सी तान भरी |
आशा

11 सितंबर, 2010

ज्योत्सना

मैं और तुम ,
सदा से ही साथ रहते हैं ,
नहीं है शिकायत मुझे तुमसे ,
मैं जानना चाहता हूं ,
क्या काले दाग हैं,
मेरे चेहरे पर ,
वे तुमने भी कभी देखे हैं ,
चांदनी ने कहा चाँद से ,
मैं हर पल साथ रहती हूं ,
तुम्हारी शीतल किरणें बिखेरती हूं ,
व्यथित मन को शान्ति देती हूं ,
यांमिनी का सौंदर्य बढा देती हूं ,
यह तुम्हारी ही तो देंन है ,
नदी का किनारा हो ,
और चांदनी रात हो ,
लोग घंटों गुजार देते हैं ,
तुम्हारी स्निग्धता और आकर्षण ,
उन्हें बांधे रहते हैं ,
मैने तुम मैं कोई कमी नहीं देखी ,
यदि तुम्हें कोई दोष देता है ,
वह नहीं जान पाया तुमको ,
मैं बस इतना जानती हूं ,
हूं ज्योत्सना तुम्हारी ,
पृथ्वी पर विचरण करती हूं ,
जैसे ही भोर होती है ,
साथ तुम्हारे चल देती हूं |
आशा

10 सितंबर, 2010

सब से भली चुप

कुछ दिन पहले ही इस मोहल्ले में किराए पर मकान लिया था |तीन चार दिन सामान खोल कर जमाने में लग गए |
मकान बहुत बड़ा था इसलिए बहुत अच्छा लगा |एक दिन जब सो कर उठे बड़ा कोलाहल मच रहा था |बड़ा आश्चर्य हुआ मैने कारण जानना चाहा |पडोसन टीना जी ने बताया कि११० नंबर में रहने वाली आंटी को सब से झगडने में बहुत आनंद आता है |
रोज किसी न किसी के घर जाती हैं और झगडा करती हैं जब तक आधा घंटे तक लड़ नहीं लेती उन्हें मजा नही आता |आज जहां वे खडी हैं आज उनका नम्बर है |
तीन दिन बाद हमारे यहाँ भी आएंगी |और इसके बाद आपका अवसर आएगा |आप अभी से सारे दावपेच सोच कर रखना |मैने सोचा मजाक कर रहीं हैं |पर दो दिन बाद जब टीना जी का घर गुलजार नजर आया ११० नंबर वाली के आने से ,सच मैं मैं तो बहुत घबरा गई |मेरी बहू यह सुन कर बोली," मम्मी आप बिल्कुल चिंता न कीजिए ,बस आप बाहर ना आना मैं सब सम्हाल लूंगी "|
दुसरे दिन नाश्ता कर के उठे ही थे कि जोर जोर से दरवाजे पर प्रहार हुआ |शायद मुसीबत आ गई थी |मैं तो अपने कमरे मैं दुबक कर बैठ गई |११० नम्बर वाली ही आई थी|आते ही शुरू हो गईं |"अरी कहाँ हो क्या यह भी नही मालूम कि कोई
मिलने आया है "|
सीमा ने कहा ,आपको किससे काम है ,मम्मी तो मंदिर गई हैं "|
उन्हों ने तुनक कर कहा "यह भी नहीं कि बैठने को कहो |चाय पानी पूंछो |क्या तुम्हारी माँ ने यही तमीज सिखाया है "
सीमा ने कुर्सी ला कर आँगन में डाल दी |वह पहले तो बैठ गई फिर बोली ,"क्या तुम नहीं बैठोगी ? मैं अकेले ही बैठूं |यह कौनसा तरीका है मेहमान के स्वागत का ?'बिना विराम दिए फिर बोलीं "मैं कोई ऐसी वैसी हूं जो यहाँ बैठूं " |थोड़ी देर बाद
कहने लगी,"क्या तुम्हारी सास ने कुछ भी नहीं सिखाया है ?" लगभग पन्द्रह मिनिट इसी प्रकार बीत गए |
वह एकाएक तुनक कर बोली,"यहाँ तो किसी से बात करना ही फिजूल है ,
मैं कुछ भी कहूँ यह कोई जबाव ही नहीं देती |मेरा तो आज का दिन ही बर्बाद हो गया |अजीब लोग हैं ऐसा पहले कभी नहीं देखा "|
फिर दो चार गालियाँ दीं और दरवाजा खोल कर बाहर को चल दी |सीमा ने चट से दरवाजा बंद किया और चैन की सांस ली |मुझे आवाज लगाई ,"मम्मी जी आप बाहर आ जाइए |अब मुसीबत टल गई है |"
खैर आज सीमा की सूझ बूझ से लड़ने से जान छूटी |किसी ने सच ही कहा है ,"सो बात की एक बात ,सब से भली चुप "|

09 सितंबर, 2010

अधूरी कविता

मैं कविता लिखना चाहता हूं ,
उसे पूरी करना चाहता हूं ,
पर वह अधूरी रह जाती है ,
चाहता हूं परिपूर्णता ,
पर कुछ त्रुटि रह ही जाती है ,
और विचार करते करते ,
सारी रात गुजर जाती है ,
और कलम रुक जाती है ,
जैसे ही तुम्हें देखता हूं ,
मुस्कान तुम्हारे चेहरे की ,
अद्वितीय प्रभाव छोड़ जाती है ,
कविता और निखरती है ,
उसमे मुस्कान सिमट जाती है ,
काले घुंगराले कुंतल ,
जब माथे पर लहराते हैं ,
कांति तुम्हारे चेहरे की ,
कई गुना हो जाती है ,
विचार अंगड़ाई लेते हैं ,
फिर कविता मैं,
एक कड़ी और जुड़ जाती है ,
सुंदर सुगढ़ हाथ देख ,
डूब जाता हूं मैं तुम में ,
तब कलम में गति आती है
कुछ पंक्तियाँ साथ लाती है ,
चाहता हूं सामने बैठो ,
मेरी कल्पना की उड़ान बनो ,
जब डूबूं सौंदर्य के खजाने में ,
कारे कजरारे नयनों की,
भाषा समझ पाऊं ,
तभी पूर्णता ला पाउँगा ,
कविता को सवार पाऊंगा ,
पर यह भय सदा रहता है ,
तुम कहीं व्यस्त ना हो जाना ,
तुम्ही मेरी कल्पना हो ,
तुम ही मेरी प्रेरणा हो ,
मैं जब तुम्हें न पाउँगा ,
कल्पना उड़ान न भर पाएगी ,
कविता अधूरी रह जाएगी
आशा




,

08 सितंबर, 2010

व्यथा बेरोजगार की

जब अध्यनरत था ,
सफलता के शिखर पर ,
सदा रहता था ,
हर बार प्रथम आता था ,
कभी भाग्य आड़े,
नहीं आता था ,
बहुत लगन से यत्न किये ,
लिखित परीक्षा में सफल रहा ,
पर ना जाने क्यूँ ,
असफलता ही हाथ लगी ,
नौकरी ना मिल पाई ,
बार बार की असफलता ,
हीन भावना भरने लगी ,
लोगों के सामने आने से ,
घबराहट सी होने लगी ,
जब भी कोई मिलता था ,
पहला प्रश्न यही होता था ,
आजकल क्या कर रहे हो ,
मैं निरुत्तर हो जाता था ,
कभी विद्रोह भी करता था ,
तरह तरह की बातों से ,
मन में अकुलाहट होती थी ,
वेदना घर कर जाती थी ,
मन तार तार कर जाती ही ,
पानी बिना मछली की तरह ,
छटपटाहट होने लगती है ,
बेचैनी और बढ़ जाती है ,
यदि योग्यता नहीं होती ,
शायद दुःख भी नहीं होता ,
सब कुछ होते हुए भी ,
असफलता से गठबंधन ,
कुंठित करता जाता है ,
विष मन में घुलता जाता है ,
सब की हिकारत भरी दृष्टि,
मुझे अकेला कर जाती है ,
मैं क्या करूं, क्या है मेरे हाथ में ?
धन भी पास नहीं है ,
और ना कोई अनुभव है ,
जो भाग्य अजमाऊं व्यापार में ,
सोचता हूं सोचता ही रहता हूं ,
ना जाने क्या लिखा है प्रारब्ध में |
आशा

07 सितंबर, 2010

क्या उचित क्या अनुचित

संबंध बनाए ऐसे लोगों से ,
कभी दूर रहते थे जिनसे ,
की चर्चा जिन बातों की ,
क्या विश्वास किया था पहले ,
धर्म ,जाति , भाषा ,प्रान्त ,
जाने क्या सोच लिया तुमने ,
पहले भी बहुत सोचते थे ,
पर अन्याय ना सह पाते थे ,
करते थे विरोध ,
हर असंगत बात का ,
उससे नफरत भी करते थे ,
तुम्हारी यही बातें और विचार ,
लाये मुझे निकट तुम्हारे ,
पर अचानक यह बदलाव ,
मेरी समझ से बहुत परे है ,
है किसका दबाव तुम पर ,
समाज का या परिवार का ,
कहने को बाध्य नहीं करूंगी ,
पर इतना अवश्य कहूंगी ,
अंतरात्मा की अनसुनी कर ,
दूसरों के अनुसार चल कर ,
प्राप्त तुम्हें कुछ ना होगा ,
कभी इस पर दृष्टिपात करना ,
गहराई से विचार करना ,
समाज उसी पर शासन करता है ,
कमजोर जिसे समझता है ,
साहस और शक्ति है जिसमें ,
उससे किनारा कर लेता है ,
साहस है भर पूर तुममें ,
शक्ति की भी कमी नहीं है ,
पर कुछ ऐसा है अवश्य ,
जो तुम्हें बाध्य करता है,
वही सब करने के लिए ,
अनुमति जिसकी नहीं देता ,
मन या मस्तिष्क तुम्हारा ,
सामाजिक होना बुरा नहीं है ,
परम्पराएं निभाना भी हैं ,
पर सारे नियमऔर परम्पराएं ,
न्यायोचित नहीं होतीं ,
और सही भी नहीं होतीं ,
जब विकृत रूप ले लेती हैं ,
उचित यही होता है ,
मुक्ति पा लेना उनसे ,
अन्यथा संकुचित विचार ,
मन मैं घर करते जाते हैं ,
चाहे जब परिलक्षित होते हैं ,
कूप मण्डूक बना देते हैं |

आशा

06 सितंबर, 2010

वीणा के स्वर कहीं खो गए हैं

वीणा के स्वर कहीं खो गए हैं ,
मुझसे हैं नाराज ,
जाने कहाँ गुम हो गए हैं ,
उनके बिना रिक्तता ,
अनजाने ही मुझमें,
घर कर गई है ,
जब चाहे अपना,
आभास करा जाती है ,
उसे भरना बहुत मुश्किल है ,
जो कुछ भी हुआ था ,
उसकी याद दिला जाती है ,
अनेकों यत्न किये मैने ,
फिर भी उसे,
बिसरा नहीं पाती ,
बेचैनी और बढ़ती जाती ,
पहले जब वीणा बजती थी ,
तार मन के झंकृत होते थे ,
मन जीवंत हो जाता था ,
दुनिया से दूर बहुत ,
अपने में खो जाता था ,
इस बार तार जो टूटा है ,
उसे जोड़ना बहुत कठिन है ,
यदि जुड भी गया ,
तो वह मधुरता ,
शायद ही आ पायेगी ,
फिर भी हूं प्रयत्न रत ,
शायद इसे जोड़ पाऊं ,
स्वर वीणा के खोज पाऊं ,
उन में ही रम जाऊं |
आशा

05 सितंबर, 2010

है जिंदगी क्या

अंधेरी रात में ,
जब ना हो कोई साथ में ,
कटती है रात तारे गिन गिन ,
तारे का टूटना और विलुप्त हो जाना ,
किसी अपने की याद दिलाता ,
कामना पूर्ती की आस जगाता ,
आशा निराशा में डूबती उतराती ,
एकाकी जीवन नैया ,
उलझनों से बाहर निकल नहीं पाती ,
गहरे भंवर में फंसती जाती ,
लुकाछिपी करते जुगनू ,
कभी चमकते कभी छिप जाते ,
चमक दमक जिंदगी की,
नजदीक आ दिखला जाते ,
है जिंदगी क्या समझा जाते ,
असली रूप दिखा जाते ,
एक तो अंधेरी रात ,
और दूर से आती आवाज ,
डरावनी सी लगती है ,
बहुत अनजानी लगती है ,
है जिंदगी एक भूल भुलैया ,
सभी इस में खो जाते हैं ,
राह कभी तो दिखती है ,
फिर जाने कंहाँ खो जाती है ,
जब राह नहीं खोज पाते ,
अधिक भटकते जाते हैं ,
और निराश हो जाते हैं ,
यह कैसी संरचना सृष्टि की ,
कोई नहीं समझ पाया ,
ना ही कभी समझ पाएगा ,
मैं हूं एक भटका राही ,
खोजते खोजते राह ,
किसी दिन विलुप्त हो जाना है ,
भूल भुलैया मैं फस कर ,
वहीं कहीं रुक जाना है ,
पर मेरा प्रयत्न विफल ना हो ,
कोई निशान छोड़ जाना है ,
कुछ तो करके जाना है |
आशा

04 सितंबर, 2010

प्रेरणा एक शिक्षक से

आसपास के अनाचार से ,
खुद को बचाकर रखा ,
पंक में खिले कमल की तरह ,
कीचड से स्वम् को बचाया तुमने ,
सागर में सीपी बहुत थी ,
अनगिनत मोती छिपे थे जिनमे ,
उनमे से कुछ को खोजा ,
बड़े यत्न से तराशा तुमने,
आज जब आभा उनकी दिखती है ,
प्रगति दिग दिगंत में फैलती है ,
लगता है जाने कितने,
प्यार से तराशा गया है ,
उनकी प्रज्ञा को जगाया गया है ,
काश सभी तुम जैसे होते ,
कच्ची माटी जैसे बच्चों को ,
इसी प्रकीर सुसंस्कृत करते ,
अच्छे संस्कार देते ,
स्वच्छ और स्वस्थ मनोबल देते ,
अपने बहुमूल्य समय में से ,
कुछ तो समय निकाल लेते ,
फूल से कोमल बच्चों को ,
विकसित करते सक्षम करते ,
जो कर्तव्य तुमने निभाया है ,
सन्देश है उन सब को ,
तुम से कुछ सीख पाएं ,
नई पौध विकसित कर पाएं ,
खिलाएं नन्हीं कलियों को ,
कई वैज्ञानिक जन्म लेंगे ,
अपनी प्रतिभा से सब को ,
गौरान्वित करेंगे ,
जीवन में भी सफल रहेंगे ,
अन्य विधाओं में भी ,
अपनी योग्यता सिद्ध करेंगे ,
जब रत्नों की मंजूषा खुलेगी ,
कई अनमोल रत्न निकलेंगे |
आशा

03 सितंबर, 2010

आभास क्षमता का

है खंजन नयन ,चंचल चपल ,
मद मस्त चाल हिरणी सी ,
कभी लगती ठंडी बयार सी ,
फिर भी है विरोधाभास ,
तू है उदास विरहणी सी ,
वेदना के स्त्रोत क्यूँ,
साथ लिए रहती है ,
है जीवन की भरपूर आस ,
ना हो उदास ,
उससे दूर क्यूँ रहती है ,
तू नहीं जानती ,
है कितनी अमूल्य तू ,
है तुझ में ऐसी तपिश ,
जो चाहे कर सकती है ,
कभी ठंडी हिम पिंड सी ,
दावानल की तरह ,
कभी उग्र भी हो सकती है ,
अपनी क्षमता को पहचान ,
ना रह इससे अनजान ,
दृढता से उठे कदम ,
ऊँचाई तक पहुंचाएंगे ,
तेरी पहचान बनापाएंगे ,
मत भूल अपनी क्षमता को ,
ना ही सीमित कर क्षेत्र को ,
जब लोग तुझे जानेंगे ,
तेरी पहचान पुष्ट होगी ,
दुनिया तब बैरी ना होगी ,
जिस भी क्षेत्र में कदम रखेगी ,
सफलता के उत्तंग शिखर पर ,
तू सहज ही चढ़ पाएगी |
आशा

02 सितंबर, 2010

कविता में परिवर्तन क्यूँ

सदा से ही प्रशंसक रहा ,
तुम्हारे कृतित्व का ,
इसको और बल मिला ,
जब मनोयोग से तुम्हें पढ़ा ,
इतना कुछ तुमने लिखा है ,
थाह पाना मुश्किल है ,
इच्छा तुमसे मिलने की ,
अधिक बलवती होती गई ,
जब भी अवसर मिला ,
तुमसे मिला ,
कुछ अधिक ही संपर्क रहा ,
मित्रता प्रगाढ़ होती गई ,
मैने जो कुछ भी लिखा ,
त्रुटियों को क्षम्य मान ,
मुझे सराहा,
प्रोत्साहित किया ,
कई बार साथ बैठा करते थे ,
भिन्न विषयों पर चर्चा करते हें ,
उनमे गहरे पैठ जाते थे ,
आत्मसात करते जाते थे ,
कई खंड काव्य रचे तुमने ,
वे अमर तुम्हें कर गए ,
दिलाया स्थान ,
इतिहास और साहित्य में ,
कई लोगों की प्रेरणा बन गए,
पहले कविता बहुरंगी थी ,
कई विधाएं छूती थी ,
फिर न जाने क्या हुआ ,
वह विद्रोह से भरती गई ,
यह कैसा परिवर्तन आया ,
क्रांतिकारी विचारक बन गए ,
जब भी कारण जानना चाहा ,
हर बार हंस कर टाल गए ,
मैं आज भी तुम्हारे जाने के बाद ,
रचनाएँ समेटे बैठा हूं ,
कारण विद्रोह का खोज रहा हूं ,
लेखन में यह बदलाव,
अचानक आया कैसे ,
कलम ने स्वयं को ,
विद्रोही बनाया कैसे |
आशा

31 अगस्त, 2010

सूखी डाली

है आज वह सूखी डाली ,
जो शोभा बढाया करती थी ,
कभी किसी हरे वृक्ष की ,
फल फूलों से लदी हुई वह ,
आकर्षित सब को करती थी ,
उस डाली पर बैठे बैठे ,
पक्षियोंकी चहचहाहट,
फुर्र से उड़ना उनका ,
बापिस वही लौट आना ,
घंटों बैठ चोंच लड़ाना ,
बहुत अच्छा लगता था ,
जाने कितना आकर्षण ,
उसमे होता था,
पथ से गुजरते राही ,
जब उसे निहारते थे ,
आत्म विभोर हो जाते थे ,
फल प्राप्ति की चाहत में ,
कई प्रयत्न किया करते थे ,
जब फल पकते और टपकते थे ,
कई जीव पेट अपना भरते थे ,
जीवन में हरियाली छाई थी ,
नामोंनिशां उदासी का न था ,
पर अब वह सूख गई है ,
उस पर उल्लू बैठा करते है ,
उसकी अवहेलना सभी करते हैं ,
ध्यान कहीं और रहता है ,
शिकार कई खोज में रहते हैं ,
जब लकड़हारा देख उसे ,
काटने के लिए चुन रहा है ,
वह और उदास हो जाती है ,
वृद्धावस्था की तरह ,
उसकी कमर झुक जाती है ,
एक दिन काटी जाएगी ,
अग्नि को समर्पित की जाएगी ,
उसकी जीवन लीला की ,
ऐसे ही समाप्ति हो जाएगी ,
वह सूख गई है ,
कभी हरी ना हो पाएगी ,
सोचती हूं ,विचारती हूं ,
इस क्षणभंगुर जीवन की ,
और कहानी क्या होगी |
आशा

30 अगस्त, 2010

मैं कुछ लिखना चाहती हूं

इच्छा कुछ लिखने की ,
बचपन से थी ,
रहती थी अध्यन रत,
तब भी चाहे जब ,
अंदर छिपे कवि की ,
छबि दिखाई देती थी ,
कभी कभी लिखती थी ,
साहित्यकार बनने की ,
अभिलाषा भी रखती थी ,
पर था दायरा सीमित ,
जब भी कुछ लिखा ,
केवल पत्रिका के लिए ,
उसमे छप भी जाता था ,
तब लेखन से ,
इतना ही मेरा नाता था ,
जब अध्यापन का क्षेत्र चुना ,
समय की कोई कमी न थी ,
अध्ययन में मन लगता था ,
वही विचारों में प्रस्फुटित होता था ,
मंच पर आने की चाहत ,
मन में घर करने लगी ,
और निखार आया लेखन में ,
सपने सच्चे होने लगे ,
विचारों का झरना बहने लगा ,
दामन खुशियों से भरने लगा ,
देख पल्लवित होती आकांक्षा ,
मन मुक्त आकाश में उड़ने लगा ,
अब मैं लिखना चाहती हूं ,
आने वाली पीढ़ी के लिए ,
बीता कल ना लौट पाएगा ,
पर संदेश कविताओं का ,
मन में घर करता जाएगा ,
मैं क्रांतिकारी तो नहीं ,
पर सम्यक क्रांति चाहती हूं ,
हूं एक बुद्धिजीवी ,
प्रगति देश की चाहती हूं |
आशा

29 अगस्त, 2010

कोई साथ नहीं देगा

प्रतिस्पर्धा के इस युग में ,
सभी  व्यस्त अपने अपने में
जब कोई कठिन समस्या हो
या सहायता की आवश्यकता
देख कर भी अनदेखा कर देते है
उससे किनारा के लेते हैं |
समस्या में ना उलझ कर
बच कर निकल आने पर
बहुत प्रसन्न हो जाते हैं
निजी स्वार्थ में लिप्त हो
आत्म केंद्रित हो जाते हैं
समाज से भी कटते जाते 
यदि ऐसा ही चलता रहा
आने वाले समय में
यह दुःख का कारण होगा
जब खुद पर मुसीबत आएगी
तब कोई साथ नहीं देगा
सहायता के लिए गुहार करोगे
आसपास कोई ना होगा
हर व्यक्ति मुंह मोड लेगा
समाज भी आइना दिखा देगा |
आशा

28 अगस्त, 2010

एक झलक

है नई जगह अनजाने लोग ,
फिर भी अपने से लगते हैं ,
हैं भिन्न भिन्न जीवन शैली ,
भाषा भी हैं अलग अलग ,
पर सब समझा जा सकता है ,
उनकी आत्मीयता और स्नेह ,
गति अवरोध दूर करते हैं ,
आसपास नए चेहरे ,
पर गहराई उनके स्नेह में,
उस ओर आकर्षित करती है,
हैं वे सब भारतवासी ,
साहचर्य भाव रखते हैं ,
भेद भाव से दूर बहुत ,
सब से प्रेम रखते हैं ,
अनेकता में एकता की ,
झलक यदि देखना है ,
तो आओ इस देश में ,
इतना प्यार तुम्हें मिलेगा ,
डूब जाओगे अपनेपन में ,
गर्व करोगे अतिथि हो कर ,
और जब बापिस जाओगे ,
जल्दी फिर लौटना चाहोगे |
आशा

26 अगस्त, 2010

स्मृतियां


सुरम्य वादियों में
दौनों ओर वृक्षों से घिरी ,
है एक पगडंडी ,
फूल पत्तियों से लदी डालियाँ ,
हिलती डुलती हैं ऐसे ,
जैसे करती हों स्वागत किसी का ,
चारों ओर हरियाली ,
सकरी सी सफेद सर्पिनी सी ,
दिखाई देती पगडंडी ,
जाती है बहुत दूर टीले तक ,
एक परिचिता सी ,
पहुंचते ही उस तक ,
गति आ जाती है पैरों में ,
टीले तक खींच ले जाती है ,
कई यादें ताजी कर जाती है ,
लगता है टीला,
किसी स्वर्ग के कौने सा ,
और यादों के रथ पर सवार ,
हो कर कई तस्वीरें ,
सामने से गुजरने लगती हैं ,
याद आता है वह बीता बचपन ,
जब अक्सर यहाँ आ जाते थे ,
घंटों खेला करते थे ,
बड़े छोटे का भेद न था ,
केवल प्यार ही पलता था ,
कभी न्यायाधीश बन ,
विक्रमादित्य की तरह ,
कई फैसले करते थे ,
न्याय सभी को देते थे ,
जब दिखते आसमान में ,
भूरे काले सुनहरे बादल ,
उनमे कई आकृतियाँ खोज , ,
कल्पना की उड़ान भरते थे ,
बढ़ चढ कर वर्णन उनका ,
कई बार किया करते थे ,
छोटे बड़े रंग बिरंगे पत्थर,
जब भी इकठ्ठा करते थे ,
अनमोल खजाना उन्हें समझ ,
गौरान्वित अनुभव करते थे ,
खजाने में संचित रत्नों की ,
अदला बदली भी करते थे ,
बचपन बीत गया ,
वह लौट कर ना आएगा ,
वे पुराने दिन ,
चल चित्र से साकार हो ,
स्मृतियों में छा जाते हैं ,
वे आज भी याद आते हैं |
आशा

23 अगस्त, 2010

घुँघरू

बंधी किंकिणी कमर पर
पहने पैरों में पैजनिया
जब ठुमक ठुमक चलता
सुनाई देती ध्वनि घुंघरूओं की
थामना चाहती उंगलियां
कहीं चोट न लगाजाए |
चाहती हूं थामूं उंगली उसकी ,
कहीं चोट ना लग जाए |
कारे कजरारे नयनो वाली
है अवगुंठन चहरे पर
चूड़ियों की खनक से
पैरों में सजी पायलों से
देती है झलक अपने आगमन की
पायलें भी ऐसी जो बोलती हैं
मन के भेद खोलती हैं
हैं हमजोली नूपुर की |
मीरा ने घुँघरू बांधे थे
वह कृष्ण प्रिया हो गयी
सुध बुध खो नृत्य करती
थी भक्ति भाव में सराबोर
आती है मधुर ध्वनि घुँघरू की
आज भी मीरा मंदिर से |
है मंदिर प्रांगण में आयोजन
सजधज कर आई बालाएं
हो विभोर नृत्य कर रहीं
उनका पद संचालन
और झंकार घुंघरूओं की
पहुंचती है दूर तक
प्रसन्न होता मन
वह मधुर झंकार सुन |
है पंडाल सजा सजाया
मंच पर पड़ती थाप
नर्तकियों के पैरों की
घुँघरूओं के बजाते ही
सब उसी रंग में रंगते जाते |
है घुंघरुओं की खनक सब मैं
पर हर बार भिन्न लगती है
पैरों के घुँघरू बचपन के
तो कभी हैं अभिसारिका के
कभी नाइका की पदचाप
तो कभी चंचल मोरनी की
थिरकन से लगते हैं |
घुँघरू हैं वही पर
हर बार भाव भिन्न और
बजने का अंदाज भिन्न
एक घुंगरू भी यदि अलग हो जाए
असहाय सा हो जाता है
अपना अस्तित्व
खोजता रहा जाता है |
है घुँघरू आधार नृत्य का
वह उसके बिना अधूरा है ,
बिना घुँघरू की मधुर धुन के ,
जीवन भी सूना सूना है |
आशा

22 अगस्त, 2010

जब रात होती है

जब रात होती है ,
नींद अपने बाहों में लेना चाहती है ,
तभी एक अनजानी शक्ति ,
अपनी ओर खिचती है ,
आत्म चिंतन के लिए बाध्य करती है ,
दिन भर जो कुछ होता है ,
चल चित्र की तरह आता है ,
आँखों के समक्ष ,
दिन भर क्या किया ?
विचार करती हूं ,
कभी विचारों में ठहराव भी आता है ,
गंभीर चिंतन और मनन
मन नियंत्रित कर पाता है ,
जो उचित होता है ,
कुछ खुशियाँ दे जाता है ,
पर जब त्रुति कोई होती है ,
पश्चाताप होता है ,
कैसे उसे सुधार पाऊं ,
बारम्बार बिचारती हूं ,
जाने कब आँख लग जाती है ,
कब सुबह हो जाती है ,
यह भी पता नहीं चलता ,
कभी अहम बीच में आता है ,
क्षमा याचना मुश्किल होती है ,
कहाँ गलत हूं जानती हूं ,
फिर भी स्वीकर नहीं करती ,
सोचती अवश्य हूं ,
भूल तुरंत सुधार लूं ,
एक निश्प्रह व्यक्ति की तरह ,
जब सोच पाउंगी ,
तभी अपने अंदर झांक पाउंगी ,
है यह कठिन परीक्षा की घड़ी,
फिर भी आशा रखती हूं ,
आत्म नियंत्रण कैसे हो ,
इसका पूरा ध्यान रखूंगी |
आशा

20 अगस्त, 2010

पहले तुम ऐसी न थीं ,

पहले तुम ऐसी ना थीं
मेरी बैरी ना थीं
मैं आज भी तुम्हें
अपना शत्रु नहीं मानता |
ऐसा क्या हुआ कि
अब पीछे से वार करती हो
कहीं दुश्मन से तो
हाथ नहीं मिला बैठी हो |
वार ही यदि करना है
पीछे से नहीं सामने से करो
पर पहले सच्चाई जान लो
दृष्टि उस पर डाल लो |
कोई लाभ नहीं होगा
अन्धेरे में तीर चलाने से
मेरे समीप आओ
मुझे समझने का यत्न करो |
मेरे पास बैठो
मैं अभी भी ना
समझ पाया हूं तुम्हें
क्यूँ दुखों का सामान
इकट्ठा करती हो |
मेरी भावनाओं से खेलती हो
बिना बात नाराज होती हो
कुछ तो बात को समझो
अभी भी देर नहीं हुई है |
आओ दिल की बात करो
बैमनस्य दूर करने के लिए
सामंजस्य स्थापित करने के लिए
कुछ तो मुझसे कहो |
ह्रदय पर रखा हुआ बोझ
कुछ तो कम होगा
जब सच्चाई जान जाओगी
मुझे समझ पाओगी
तभी शांति का अनुभव होगा|
आशा

छिपा हुआ

मन मैं छिपी भावनाओं के ,
इस अनमोल खजाने को ,
क्यूँ अब तक अनछुआ रखा ,
आखिर ऐसी क्या बात थी ,
सब की नजरों से दूर रखा ,
मन में उठी भावनाओं को ,
पहले तो लिपिबद्भ किया ,
फिर क्यूँ सुप्त प्रतिभा को ,
फलने फूलने का अवसर ना दिया ,
सब की नजरों से दूर किसी कोने में ,
इसे छिपा कर रखा,
हर बात जो मन को अच्छी लगती है ,
जीवन में अपना स्थान रखती है ,
यह अधिकार किसी को नहीं है ,
कि उसे अपने साथ ले जाए ,
कोई सपना अधूरा रह जाए ,
साथ ही चला जाए ,
जीने का यह अंदाज ऐसा भी बुरा नहीं है ,
किसी भावना से जुड़ जाएं ,
यह कोई गुनाह नहीं है ,
जो बीत गया कल फिर ना आएगा ,
आनेवाले कल का भी कोई पता नहीं ,
वर्तमान में संचित पूंजी का ,
क्यूँ ना पूर्ण उपयोग करूं ,
इस अनमोल खजाने का,
जी भर कर उपभोग करूं |
आशा


,

19 अगस्त, 2010

राखी आई राखी आई


राखी आई राखी आई
भाई बहन के स्नेह बंध का
यह त्यौहार अनोखा लाई
राखी आई राखी आई
पहन चुनरी ,मंहदी चूड़ी
बहना भी सजधज कर आई
राधा और रुकमा को लाई
राखी आई राखी आई
फैनी घेवर और मिठाई
फल और राखी बहना लाई
रंग बिरंगी राखी ला कर
अपने भैया को पहनाई
केवल धागा नहीं है राखी
रक्षा का बंधन है राखी
बांध कलाई पर राखी को
बहना देती दुआ भाई को |
आशा

18 अगस्त, 2010

क्या खोया क्या पाया मैंने


क्या खोया क्या पाया मैने
 आकलन जब भी किया 
सच्चाई जानना चाही 
मैं और उदास हो गयी 
बहुत खोया कुछ ना पाया
जब भी पीछे मुड़ कर देखा
लुटा हुआ खुद को पाया 
जाने कितने लोग मिले
केवल सतही संबंधों से
जिनके चहरे खूब खिले
यह सब मैने नहीं चाहा
अपनों को ही अपनाया
मन से सब का अच्छा चाहा
पर आत्मीय कोई ना पाया
जूझ रही हूं जिंदगी से
कुछ अच्छा नहीं लगता
चारों और  अन्धेरा लगता 
और उदासी छा जाती है
सोचती हूं ,विचारती हूं
लंबी उम्र बनी ही क्यूँ
यदि निरोगी काया होती
शायद तब अच्छा लगता
पर इससे हूं दूर बहुत
हर ओर वीराना लगता है
फिर भी मन को छलती हूं
देती हूँ झूटी सांत्वना
कभी तो समय बदलेगा
कोई अपना होगा
निराशा नहीं होगी
आशा का दीप जलेगा 
आशा

17 अगस्त, 2010

डायरी का हर पन्ना


मेरी डायरी का,
हर पन्ना खाली नहीं है ,
सब पर कुछ न कुछ लिखा है ,
जो भी लिखा है असत्य नहीं है ,
पर पढ़ा जाए जरूरी भी नहीं है ,
कुछ पन्नों पर पेन्सिल से लिखा है ,
जिसे मिटाया जा सकता है ,
कुछ नया लिख कर ,
सजाया सवारा भी जा सकता है ,
कुछ ऐसा जब भी होता है ,
जो मन के विपरीत होता है ,
डायरी में वह भी ,
होता है अंकित,
मन को लगी ठेस,
करती है बहुत व्यथित .
पर पल दो पल की खुशियाँ ,
बन जाती हैं यादगार पल ,
और दे जाती हैं शक्ति ,
उन पन्नों को भरने की ,
पेन्सिल से जो लिखा था ,
रबर से मिट भी गया ,
पर मन के पन्नों पर ,
है जो अंकित ,
उसे मिटाऊं कैसे ,
सारे प्रयत्न व्यर्थ हुए ,
उनसे छुटकारा पाऊं कैसे |
आशा