29 दिसंबर, 2011

आने को है नया साल

आने को है नया साल 
कुछ नया लिए 
कल सुबह आए
खुशियों की सौगात लिए |
तैयारी  की स्वागत की 
जागे सारी रात 
अनोखा उत्सार जगा 
नया साल कुछ खास  लगा |
स्वप्नों के तानेबाने से 
एक नया संसार बुना 
जहां न हो भेदभाव 
हो  भाई चारा बेमिसाल |
हर ओर अमन चैन फैले 
प्रेममय सब जग लगे
तभी तो आने वाला कल 
आएगा  उज्वल भविष्य लिए |
संभावनाएं  होंगी अनेक 
लिए उत्साह हर क्षेत्र में 
है कामना आए यह साल 
समृद्धि की मशाल लिए |
आशा 







27 दिसंबर, 2011

सुगंधित बयार

है प्रेम क्या उसका अर्थ क्या
वह हृदय की है अभिव्यक्ति
या शब्दों का बुना जाल
या मन में उठा एक भूचाल |
होती आवश्यक संवेदना
आदर्श विचार और भावुकता
किसी से प्रेम के लिए
कैसे भूलें त्याग और करुना
है यह अधूरा जिन के बिना |
कुछ पाना कुछ दे देना
फिर उसी में खोए रहना
क्या यह प्यार नहीं
लगता है यह भी अपूर्ण सा
कब आए किस रूप में आए
है कठिन जान पाना |
जिसने इसे मन में सजाया
इसी में आक्रान्त डूबा
मन में छुपा यही भाव
नयनों से परिलक्षित हुआ |
रिश्तों की गहराई में
दाम्पत्य की गर्माहट में
यदि सात्विक भाव न हो
 तब सात फेरे सात वचन
साथ जीने मरने की कसम
लगने लगते सतही
या मात्र सामाजिक बंधन |
जिसके हो गए उसी में खो गए
रंग में उसी के रंगते गए
क्या यह प्यार नहीं ?
यह है बहुआयामी
और अनंत  सीमा जिसकी
यह तो है सुगन्धित बयार सा
जिसे बांधना सरल नहीं |

25 दिसंबर, 2011

सांता क्लाज


हे सांता हो तुम कौन
कहाँ से आए
बच्चों से तुम्हारा कैसा नाता
वे पूरे वर्ष राह देखते
मिलने को उत्सुक रहते |
क्या नया उपहार लाये
झोली में झांकना चाहते
बहुत प्रेम उनसे करते हो
वर्ष में बस एक ही बार
आने का सबब क्यूं न बताते |
बहुत कुछ दिया तुमने
प्यार दुलार और उपहार
सभी कुछ ला दिया तुमने
सन्देश प्रेम का दिया तुमंने |
तभी तो हर वर्ष तुम्हारा
इन्तजार सभी करते हैं
आवाज चर्च की घंटी की सुन
खुशी से झूम उठते हैं |
हैप्पी क्रिसमस ,मैरी क्रिसमस
बोल गले मिलते हैं
तुम्हारे आगमन की खुशी में
गाते नाचते झूमते झामते
केक काट खाते मिल बाँट
मन से जश्न खूब मनाते |
आशा





23 दिसंबर, 2011

अंदाज अलग जीने का

हूँ स्वप्नों की राज कुमारी

या कल्पना की लाल परी

पंख फैलाए उडाती फिरती

कभी किसी से नहीं डरी |

पास मेरे एक जादू की छड़ी

छू लेता जो भी उसे

प्रस्तर प्रतिमा बन जाता

मुझ में आत्म विशवास जगाता |

हूँ दृढ प्रतिज्ञ कर्तव्यनिष्ठ

हाथ डालती हूँ जहां

कदम चूमती सफलता वहाँ |

स्वतंत्र हो विचरण करती

छली न जाती कभी

बुराइयों से सदा लड़ी

हर मानक पर उतारी खरी |

पर दूर न रह पाई स्वप्नों से

भला लगता उनमें खोने में

यदि कोइ अधूरा रह जाता

समय लगता उसे भूलने में |

दिन हो या रात

यदि हो कल्पना साथ

होता अंदाज अलग जीने का

अपने मनोभाव बुनने का |

आशा

20 दिसंबर, 2011

सुकून

जब भी मैंने मिलना चाहा

सदा ही तुम्हें व्यस्त पाया

समाचार भी पहुंचाया

फिर भी उत्तर ना आया |

ऐसा क्या कह दिया

या की कोइ गुस्ताखी

मिल रही जिसकी सजा

हो इतने क्यूँ ख़फा |

है इन्तजार जबाव का

फैसला तुम पर छोड़ा

हैं दूरियां फिर भी

फरियाद अभी बाकी है |
यूँ न बढ़ाओ उत्सुकता

कुछ तो कम होने दो

है मन में क्या तुम्हारे

मौन छोड़ मुखरित हो जाओ |

हूँ बेचैन इतना कि

राह देखते नहीं थकता

जब खुशिया लौटेंगी

तभी सुकून मिल पाएगा |

आशा

18 दिसंबर, 2011

पाषाण या बुझा अंगार


है कैसा पाषाण सा
भावना शून्य ह्रदय लिए
ना कोइ उपमा ,अलंकार
या आसक्ति सौंदर्य के लिए |
जब भी सुनाई देती
टिकटिक घड़ी की
होता नहीं अवधान
ना ही प्रतिक्रया कोई |
है लोह ह्रदय या शोला
या बुझा हुआ अंगार
सब किरच किरच हो जाता
या भस्म हो जाता यहाँ |
है पत्थर दिल
खोया रहता अपने आप में
सिमटा रहता
ओढ़े हुए आवरण में |
ना उमंग ना कोई तरंग
लगें सभी ध्वनियाँ एकसी
हृदय में गुम हो जातीं
खो जाती जाने कहाँ |
कभी कुछ तो प्रभाव होता
पत्थर तक पिधलता है
दरक जाता है
पर है न जाने कैसा
यह संग दिल इंसान |
आशा




16 दिसंबर, 2011

कैसा अलाव कैसा जाड़ा


सर्दी का मौसम ,जलता अलाव

बैठे लोग घेरा बना कर

कोइ आता कोइ जाता

बैठा कोइ अलाव तापता |

आना जाना लगा रहता

फिर भी मोह छूट न पाता

क्यूँ कि कड़ी सर्दी से

है गहरा उसका नाता |

एक किशोर करता तैयारी

मार काम की उस पर भारी

निगाहें डालता ललचाई

पर लोभ संवरण कर तुरंत

चल देता अपने मार्ग पर |

कैसा अलाव कैसा जाड़ा

उसे अभी है दूर जाना

अब जाड़ा उसे नहीं सताता

है केवल काम से नाता |

आशा

14 दिसंबर, 2011

छुईमुई

बाग बहार सी सुन्दर कृति ,
अभिराम छवि उसकी |
निर्विकार निगाहें जिसकी ,
अदा मोहती उसकी ||
जब दृष्टि पड़ जाती उस पर ,
छुई मुई सी दिखती |
छिपी सुंदरता सादगी में,
आकृष्ट सदा करती ||
संजीदगी उसकी मन हरती,
खोई उस में रहती |
गूंगी गुडिया बन रह जाती ,
माटी की मूरत रहती ||
यदि होती चंचल चपला सी ,
स्थिर मना ना रहती |
तब ना ही आकर्षित करती ,
ना मेरी हो रहती ||
आशा


11 दिसंबर, 2011

अनूठा सौंदर्य


बांह फैलाए दूर तलक
बर्फ से ढकीं हिमगिर चोटियाँ
लगती दमकने कंचन सी
पा आदित्य की रश्मियाँ |
दुर्गम मार्ग कच्चा पक्का
चल पाना तक सुगम नहीं
लगा ऊपर हाथ बढाते ही
होगा अर्श मुठ्ठी में |
जगह जगह जल रिसाव
ऊपर से नीचे बहना उसका
ले कर झरने का रूप अनूप
कल कल मधुर ध्वनि करता |
जलधाराएं मिलती जातीं
झील कई बनती जातीं
नयनाभिराम छबी उनकी
मन वहीँ बांधे रखतीं |
कभी सर्द हवा का झोंका
झझकोरता सिहरन भरता
हल्की सी धुप दिखाई देती
फिर बादलों मैं मुंह छिपाती |
एकाएक धुंध हो गयी
दोपहर में ही शाम हो गयी
अब न दीखता जल रिसाव
ना ही झील ना घाटियाँ |
बस थे बादल ही बादल
काले बादल भूरे बादल
खाई से ऊपर आते बादल
आपस में रेस लगाते बादल
मन में जगा एक अहसास
होते हैं पैर बादलों के भी
आगे बढ़ने के लिए
आपस में होड़ रखते हैं
आगे निकलने के लिए |
आशा

10 दिसंबर, 2011

है नाम जिंदगी इसका


बोझ क्यूँ समझा है इसे
है नाम जिंदगी इसका
सोचो समझो विचार करो
फिर जीने की कोशिश करो |
यत्न व्यर्थ नहीं जाएगा
जिंदगी फूल सी होगी
जब समय साथ देगा
जीना कठिन नहीं होगा |
माना कांटे भी होंगे
साथ कई पुष्पों के
दे जाएगे कभी चुभन भी
इस कठिन डगर पर |
फिर भी ताजगी पुष्पों की
सुगंध उनके मकरंद की
साथ तुम्हारा ही देगी
तन मन भिगो देगी |
होगा हर पल यादगार
कम से कमतर होगा
कष्टों का वह अहसास
जो काँटों से मिला होगा |
सारा बोझ उतर जाएगा
छलनी नहीं होगा तन मन
कठिन नहीं होगा तब उठाना
इस फूलों भरी टोकरी को |
आशा




09 दिसंबर, 2011

छंद लेखन

छंद लेखन होगा कठिन यह ,आज तक सोचा न था |
होगी कठिन इतनी परिक्षा ,यही तो जाना न था ||

फिर भी प्रयत्न नहीं छोड़ा ,बार बार नया लिखा |
ना पा सकी सफलता तब भी ,ध्यान मात्रा का रखा ||

यह नहीं सोचा हो गेय भी ,भावना में खो गयी |
गणना में मात्रा की उलझी ,सोचती ही रह गयी ||

सफलता से है दूरी अभी ,आज तक समझा यही |
मन मेरा यह नहीं मानता ,चाहता जाना वहीँ ||
आशा



06 दिसंबर, 2011

मन भ्रमित मेरा

चंचल चितवन के सैनों से ,क्यूं वार किया तुमने |
तुम हो ही इतनी प्यारी सी ,मन मोह लिया तुमने ||

मृदु मुस्कान लिए अधरों पर ,यूँ समक्ष आ गईं |
सावन की घनघोर घटा सी ,अर्श में छाती गयी ||

नहीं सोच पाया मैं अभी तक ,है ऐसा क्या तुम में |
रहता हूँ खोया खोया सा ,स्वप्नों में भी तुम में ||

क्या तुम भी वही सोचती हो ,करती हो प्यार मुझे |
या है मन भ्रमित मेरा ही ,तुम छलती रहीं मुझे ||
आशा

04 दिसंबर, 2011

नया अंदाज

हुए बेजार जिंदगी से इतने
हर शै पर पशेमा हुए
था न कोइ कंधा सर टिकाने को
जी भर के आंसू बहाने को |
हर बार ही धोखा खाया
बगावत ने सर उठाया
हमने भी सभी को बिसराया
हार कर भी जीना आया |
है दूरी अब बेजारी से
नफ़रत है बीते कल से
अब कोइ नहीं चाहिए
अपना हमराज बनाने को |
सूखा दरिया आंसुओं का
भय भी दुबक कर रह गया
है बिंदास जीवन अब
और नया अंदाज जीने का |
आशा


02 दिसंबर, 2011

कोइ वर्जना नहीं

मन बंजारा भटक रहा
अनजाने में जाने कहाँ
बिना घर द्वार
जीवन से हो कर बेजार |
राहें जानता नहीं
है शहर से अनजान
पहचानता नहीं
अपने ही साए को
अनजान निगाहों को |
आगे बढ़ता बिना रुके
यह अलगाव
यह भटकाव
ले जाएगा कहाँ उसे |
चाहता नहीं कोइ रोके टोके
जाने का कारण पूंछे
खोना ना चाहे आजादी
वर्जनाओं का नहीं आदी |
है स्वतंत्र स्वच्छंद
चाहता नहीं कोइ बंधन
बस यूं ही विचरण कर
अपने अस्तित्व पर ही
करता प्रश्न |
आशा

30 नवंबर, 2011

Temptation


The morning breeze

Attracts me

The rising sun

Touches me

Walking zone calls me

Temptation is so high

I fly in the sky

Being soft and silky

The shining rays

Catch me

They play hide and seek

In dreams only

Alas I have awaken

And no rays are there

To play with me ।

Asha


28 नवंबर, 2011

तलवार परीक्षा की

कब तक पढ़ना कितना पढ़ना ,
अब तलक चलता रहा |
लटकी तलवार परिक्षा की ,
अनकहा कुछ न रहा ||
जो भी कोशिश की थी तुमने ,
काम तो आई नहीं |
यही लापरवाही तुम्हारी ,
रास भी आई नहीं ||
है परिक्षा अब तो निकट ही ,
विचारों में मत बहो |
सारे समय उसी की सोचो
उसी में डूबे रहो ||
करो न बरबादी समय की ,
मेरा कहा मान लो |
जो ठान लोगे अपने मन में ,
होनी वही जान लो ||
आशा

25 नवंबर, 2011

छलावा


है जिंदगी एक छलावा
पल पल रंग बदलती है
है जटिल स्वप्न सी
कभी स्थिर नहीं रहती |
जीवन से सीख बहुत पाई
कई बार मात भी खाई
यहाँ अग्नि परीक्षा भी
कोई यश न दे पाई |
अस्थिरता के इस जालक में
फँसता गया ,धँसता गया
असफलता ही हाथ लगी
कभी उबर नहीं पाया |
रंग बदलती यह जिंदगी
मुझे रास नहीं आती
जो सोचा कभी न हुआ
स्वप्न बन कर रह गया |
छलावा ही छलावा
सभी ओर नज़र आया
इससे कैसे बच पाऊँ
विकल्प नज़र नहीं आया |

आशा

23 नवंबर, 2011

कैसा जीवन पथ




हम दौनों के बीच
यह कैसी दरार पड़ गयी
प्यार नाम की चिड़िया
कहीं कूच कर गयी |
पत्ता डाल से टूटा
सभी कुछ बेगाना लगा
जाने कब सांझ उतर आई
गुत्थी और उलझ गयी |
जितना भी सुलझाना चाहा
ऊन सी उलझती गयी
कंगन की गांठों की तरह
और अधिक कसती गयी |
एक हाथ से न खुल पाई
झटका दिया तोड़ डाला
है तेरी यह रुसवाई कैसी
सारी खुशियाँ ले गयी |
ना गिला ना कोइ शिकवा
फिर भी दूरी बढ़ गयी
जीवन की मधुरता को
जाने किसकी नज़र लगी |
आशा

20 नवंबर, 2011

कहीं संकेत तो नहीं


मन में दबी आग
जब भी धधकती है
बाहर निकलती है
थर्रा देती सारी कायनात |
मन ही मन जलता आया
सारा अवसाद छिपाया
सारी सीमा पार हों गयी
सहनशक्ति जबाब दे गयी |
विस्फोट हुआ ज्वाला निकली
धुंआ उठा चिंगारी उड़ीं
हाथ किसी ने नहीं बढाया
साथ भी नहीं निभाया |
समझा गया हूँ क्रोधित
इसी से आग उगल रहा
पर कारण कोइ न जान पाया
मन मेरा शांत न कर पाया |
बढ़ने लगी आक्रामकता
तब भयभीत हो राह बदली
बरबादी के कहर से
स्वयम् भी न बच पाया |
बढ़ी विकलता ,आह निकली
बहने लगी अश्रु धारा
पर शांत भाव आते ही
ज़मने लगी , बहना तक भूली |
फिर जीवन सामान्य हो गया
कुछ भी विघटित नहीं हुआ
है यह कैसी विडंबना
सवाल सहनशीलता पर उठा |
बार बार आग उगलना
फिर खुद ही शांत होना
कहीं यह संकेत तो नहीं
सब कुछ समाप्त होने का |
आशा

18 नवंबर, 2011

एक मोहरा


प्रेमी न थे वे तो तुम्हारे
भरम में फंसते गए
नादाँ थे जो जान न पाए
गर्त में धंसते गए |
मार्ग न पाया उचित जब तक
भटकाव सहते गए
साथी न पाया अर्श तक जब
फलसफे बनते गए |
ना बेवफाई की तुम्हारी
आहट तक उन्हें मिली
प्यार में धोखा खाते गए
रुसवाई उन्हें मिली |
यूँ तो न थे वे प्रिय तुम्हें भी
मानते यह क्यूँ नहीं
वे थे तुम्हारा एक मोहरा
स्वीकारते क्यूँ नहीं |

आशा


15 नवंबर, 2011

स्वर्ग वहीं नजर आया


गहन जंगल ,गहरी खाइयां
लहराते बल खाते रास्ते
था अटूट साम्राज्य जहां
प्राकृतिक वन संपदा का |
थे कहीं वृक्ष गगन चुम्बी
करते बातें आसमान से
चाय के बागान दीखते
हरे मखमली गलीचे से |
हरी भरी वादी के आगे
थी श्रंखला हिम गिरी की
था दृश्य इतना विहंगम
वहीं रमण करता मन |
ऊंचे नीचे मार्गों पर
सरल न था आगे बढ़ना
सर्द हवा के झोंके भी
हिला जाते समूचा ही |
फिर भी कदम ठिठक जाते
आगे बढ़ाना नहीं चाहते
प्रकृति के अनमोल खजाने को
ह्रदयंगम करते जाते |
जब अपने रथ पर हो सवार
निकला सूर्य भ्रमण पर
था तेज उसमें इतना
हुआ लाल सारा अम्बर |
प्रथम किरण की स्वर्णिम आभा
समूची सिमटी बाहों में
उससे ही श्रृंगार किया
हिम गिरी के उत्तंग शिखर ने |
उस दर्प का क्या कहना
जो उस पर छाता गया
दमकने लगा वह कंचन सा
स्वर्ग वहीं नजर आया |
आशा





13 नवंबर, 2011

वे दिन

वे दिन वे ही रातें
सोती जगती हंसती आँखें
तन्हाई की बरसातें
जीवन की करती बातें |
सुबह की गुनगुनी धूप ने
पैर पसारे चौबारे में
हर श्रृंगार के पेड़ तले
बैठी धवल पुष्प चादर पर
लगती एक परी सी |
थे अरुण अधर अरुणिम कपोल
मधुर
मदिर मुस्कान लिए
स्वप्नों में खोई हार पिरोती
करती प्रतीक्षा उसकी |
कभी होती तकरारें
सिलसिले रूठने मनाने के
कई यत्न प्यार जताने के
जिसे समीप पाते ही
खिल उठाती कली मन की |
वे दिन लौट नहीं पाते
बस यादें ही है अब शेष
कभी जब उभर आती है
वे दिन याद दिलाती हैं |
आशा




04 नवंबर, 2011

सृजन के लिए


जो देखा सुना या अनदेखा किया
कुछ बस गया कुछ खो गया
दिल के किसी कौने में
कई परतों में दब गया |
दी दस्तक जब किसी ने
स्वप्नलोक में खो गया
अनेकों उड़ानें भरी
कुछ नई ऊर्जा मिली |
शायद था यह भ्रम
या था अंतरनिहित भाव
पर था अनुभव अनूठा
गुल गुलशन महका गया |
महावारी पैरों तले मखमली हरियाली
और वही मंथर गति कदमों की
घुलते से मधुर स्वर कानों में
कुछ बिम्बों का अहसास हुआ |
साकार कल्पना करने को
कुछ शब्द चुने कागज़ खोजे
ज्वार भावों का न थम पाया
नव गीत का श्रृंगार किया |
शब्दों का लिवास मिलते ही
कुछ अधिक ही निखार आया
जब भी उसे गुनगुनाया
कलम ने हाथ आगे बढ़ाया |
नई कृति नया सृजन नए भाव
प्रेरित होते बिम्बों से
जिनके साकार होते ही
सजने लगते नए सपने |

आशा

03 नवंबर, 2011

कसौटी






जिस साधना की नव विधा के, स्वर सिखाये आपने।
वो गीत गाये गुनगुनाये, जो सुनाये आपने।।
वो थे मदिर इतने कि कानों - में, मधुरता चढ़ गयी।
है गीत की यह रीत, गाने - की विकलता, बढ़ गयी।१।

वह गीत गाती, गुनगुनाती, वादियों में घूमती।
मौसम मधुर का पान करती, मस्तियों में झूमती।।
ढेरों किये तब जतन उसने, आपसे दूरी रही।
मिलना न था सो मिल न पाई, क्वचिद मज़बूरी रही।२।

बीते दिनों की याद उसको, जब सताने लग गयी।
तब याद जो मुखड़े रहे, वह, गुनगुनाने लग गयी।।
वह आत्म विस्मृत भटकनों में, भटकती जीने लगी।
फिर भूल कर सुध-बुध, मगन-मन, भक्ति-रस पीने लगी।३।

तब तोड़ कर बंधन जगत से, प्रभु भजन में खो गयी।
अनुरोध मन का मान कर, वह, कृष्ण प्यारी हो गयी।।
हर श्वास में प्रभु थे बसे, वश, लेश, तन-मन पर न था।
हर पल कसौटी तुल्य था, पर, पर्व से कमतर न था।४।
आशा

02 नवंबर, 2011

मीत बावरा

है मीत ही बावरा उसका ,निमिष में घबरा गया
पाया न सामने जब उसको ,भावना में बह गया |

थी बेचैन
निगाहें उसकी ,ना ही धरा पैरों तले
जाने कब तक यूं ही भटका , न पाया जब तक उसे |

भागा हुआ वह गया अपनी ,प्रियतमा की खोज में
पा दूर से ही झलक उसकी ,ठंडक आई सोच में |

आया नियंत्रण साँसों पर , आहट पाकर उसकी
मुस्कानों में खो गया , थी वह जन्नत उसकी |
आशा

29 अक्टूबर, 2011

असफल क्यूं


भुलाए कैसे बीतें पलों को
जीवन में लगे ग्रहण को
पहले न था अवरोध कहीं
थी जिंदगी भी सरल कहीं |
परिवेश बदला वह बदली
पर समायोजन न कर पाई
होता संघर्ष ही जीवन
यह तक न जान पाई |
नितांत अकेली रह गयी
अन्तरमुखी होती गयी
उचित सलाह न मिल पाई
विपदाओं में घिरती गयी |
रोज की तकरार में
आस्था डगमगा गयी
हर बार की तकरार में
मन छलनी होता गया |
माना न खोला द्वार उसने
बंद किया खुद को कमरे में
क्या न था अधिकार उसको
लेने का स्वनिर्णय भी |
आज है सक्षम सफल
फिर भी घिरी असुरक्षा से
कभी विचार करती रहती
शायद है उसी में कमीं |
विपरीत विचारों में खोई
समझ न पाई आज तक
चूमती कदम सफलता बाहर
निजि जीवन में ही असफल क्यूँ ?


27 अक्टूबर, 2011

कुछ विचार बिखरे बिखरे

पहले उसे अपना लिया ,फिर निमिष में बिसरा दिया
अनुरोध निकला खोखला ,प्रिय आपने यह क्या किया |

बीती बातें वह ना भूला ,कोशिश भी की उसने
इन्तजार भी कब तक करता ,गलत क्या किया उसने |

है आज बस अनुरोध इतना ,घर में आकार रहिये
रूखा सूखा जो वह खाता ,पा वही संतुष्ट रहिये |

आज छत्र छाया में तुम्हारी ,अभय दान मिले मुझे
पाऊँ जो आशीष तुम्हारा ,कहीं रहे ना भय मुझे |

जो भी थे कल तक तुम्हारे ,वे किसी के हो गए
इन्तजार व्यर्थ लगता उनका ,जो दुखी कर चल दिए |
आशा


23 अक्टूबर, 2011

कशिश उसकी




द्वारे सजाए अल्पना से
थी कोशिश प्रथम उसकी
क्यारी सजी सुन्दर फूलों की
छवि आकर्षक उसकी |
त्यौहार दीपों का मनाया
दीपक जलाए स्नेह के
होने लगे हैं शुभ शगुन भी
उसी के आगाज के |
चाहा न कोइ उपहार था
था अनुरोध भी नहीं
जो पा लिया थी खुश उसी में
थी कशिश उसमें कहीं |

आशा


20 अक्टूबर, 2011

दीपावली


टिमटिमाते तारे गगन में
अंधेरी रात अमावस की
दीपावली आई तम हरने
लाई सौगात खुशियों की |
कहीं जले माटी के दीपक
रौशन कहीं मौम बत्ती
चमकते लट्टू बिजली के
विष्णु प्रिया के इन्तजार में |
बनने लगी मावे की गुजिया
चन्द्रकला और मीठी मठरी
द्वार खुला रखा सबने
स्वागतार्थ लक्ष्मी के |
आतिशबाजी और पटाखे
हर गली मोहल्ले में
नन्ही गुडिया खुश होती
फुलझड़ी की रौशनी में |
समय देख पूजन अर्चन
करते देवी लक्ष्मी का
खील बताशे और मिठाई
होते प्रतीक घुलती मिठास की |
दृश्य होता मनोरम
तम में होते प्रकाश का
होता मिलन दौनों का
रात्री और उजास का |
प्रकाश हर लेता तम
फैलाता सन्देश स्नेह का
चमकता दमकता घर
करता इज़हार खुशियों का |

आशा


18 अक्टूबर, 2011

प्रकृति प्रेमी


ऊंची नीची पहाडियां
पगडंडी सकरी सी
मखमली फैली हरियाली
लगती उसे अपनी सी |
बचपन से ही था अकेला
एकांत प्रिय पर मृदुभाषी
भीड़ में भी था एकाकी
कल्पना उसकी साथी |
था गहरा लगाव उसे
प्रकृति की कृतियों से
मन मयूर नाच उठता था
उनके सामीप्य से |
हरी भरी वादियों में
कलकल करता झरना
ऊंचाई से नीचे गिरता
मन चंचल कर देता
जलचर थलचर भी कम न थे
नभचर का क्या कहना
लगता अद्भुद उन्हें देखना
उनमें ही खोए रहना |
था ऐसा प्रभावित उनसे
क्यूँ की वे थे भिन्न मानव से
घंटों गुजार देता वहाँ
तन्मय प्रकृति में रहता |
हर बार कुछ नया लिखता
देता विस्तार कल्पना को
रचनाएँ ऐसी होतीं
परिलक्षित करतीं प्रकृति को |
भावों की बहती निर्झरणी
यादों में बसती जाती
खाली एकांत क्षणों में
आँखों के समक्ष होती |
वह खुशी होती इतनी अमूल्य
जिसे व्यक्त करता
मन चाहे स्वरुप में
खो जाता फिर से प्रकृति में
आशा


12 अक्टूबर, 2011

चाहत


आँखें उसकी नील कमल सी
और कशिश उनकी ,
जब खींचेगीं बाँध पाएंगी
होगी परिक्षा उनकी |
उनका उठाना और झुक जाना
गहराई है झील की
आराधना और इन्तजार
चाहत है मन मीत की |
जाना न होगा दूर कहीं
किसी जन्नत के लिए
दूरियां घटती जाएँगी
पास आने के लिए |
कल्पनाओं की उड़ान मेरी
परवान चढती जाएगी
अब रोज ही त्यौहार होगा
आएगी घर में खुशी |
आशा


10 अक्टूबर, 2011

हूँ मैं एक आम आदमी


होने को है आज
अनोखा त्यौहार दीपावली का
अभिनव रंग जमाया है
स्वच्छता अभियान ने |
दीवारों पर मांडने उकेरे
और अल्पना द्वारों पर
है प्रभाव इतना अदभुद
हर कौना चमचमाया है |
बाजारों में आई रौनक
गहमा गहमी होने लगी
पर फिर भी सबके चेहरों पर
पहले सा उत्साह नहीं |
मंहंगाई की मार ने
आसमान छूते भावों ने
और सीमित आय ने
सोचने को बाध्य किया |
फीका स्वाद मिठाई का
नमकीन तक मंहंगा हुआ
उपहारों की क्या बात करें
सर दर्द से फटने लगा |
लगती सभी वस्तुएँ आवश्यक
रोज ही लिस्टें बनती है
पहले सोचा है व्यर्थ आतिशबाजी
पर बच्चे समझोता क्यूं करते
यदि मना किया जाता
वे उदास हो जाते |
हर बार सोचता हूँ
सबकी इच्छा पूरी करूँ
ढेरों खुशियाँ उनको दूं
पर सोच रह जाता अधूरा |
क्यूँ उडूं आकाश में
हूँ तो मैं एक आम आदमी
और भी हें मुझसे
मैं अकेला तो नहीं
जो जूझ रहा मंहंगाई से |

आशा



09 अक्टूबर, 2011

है अदभुद अहसास


है कितना सुन्दर सुखद
अदभुद अहसास तेरे आगमन का
और मिठास की कल्पना
तेरी खनकती आवाज की |
जब होती हलचल सी
रहती बस यही कल्पना
जल्दी से तू आए
मेरी गोदी में छुप जाए |
कभी ठुमक ठुमक नाचे
गाये तोतली भाषा में
खिलखिलाए बातें बनाए
मेरे घर के आँगन में |
नन्हीं सी बाहें जब फैलाए
गोदी में उठालूँ
बाहों में झुलाऊ
बाँध लूं प्यार से बंधन में |
काले कजरारे नयनों पर
यदि बालों की लटआए
जल्दी से उन्हें सवारूँ
बांधूं लाल रिबिन से |
काजल का दिठोना
लगा भाल पर
तुझे बचाऊँ दुनिया की
बुरी नजर से |
हो चाँद सी उजली सूरत
सीरत किसी देवी सी
तू चले महुआ महके
हँसे तो फूल झरे |
जब अश्रु आँखों में आएं
तुझे कहीं आहत कर जाएँ
अपने आँचल से पोंछ डालूं
आने न दूं उन्हें तेरी जिंदगी में |
तू जल्दी से आ जा
मेरी जिंदगी में
दुनिया चाहे गुड्डा
पर तू है चाहत मेरी |
आशा







06 अक्टूबर, 2011

अवसाद में


सारी बीती उन बातों में , कोई भी सार नहीं ,
सार्थक चर्चा करने का भी , कोई अधिकार नहीं |
प्रीत की रीत न निभा पाया , मुझे आश्चर्य नहीं ,
सोचा मैंने क्या व हुआ क्या, अब सरोकार नहीं |
वे रातें काली स्याह सी , जाने कहाँ खो गईं ,
बातें कैसे अधरों तक आईं , जलती आग हो गईं |
आती जाती वह दिख जाती , डूबती अवसाद में ,
ऐसा मैंने कुछ न किया था , जो थी ज्वाला उसमें |

आशा


05 अक्टूबर, 2011

कल्पना

प्रत्यक्ष में जो दिखाई दे
कल्पना में समा जाए
जो कभी ना भी सोचा
कल्पना में होता जाए |
होता आधार उसक
केवल मन की उपज नहीं
होता अनंत विस्तार
कल्पना की झील का |
परिवर्तित होता आयाम
स्थूल रूप पा कर भी
कभी कम तो कभी
अधिक होता |
अपने किसी को दूर पा
कई विचार मन में आते
कल्पना का विस्तार पा
मन में हलचल कर जाते |
जो भी जैसा होता
वैसा ही सोच उसका होता
कल्पना में डूब कर
तिल का ताड़ बना देता |
धर्म और जातीय समीकरण
कई बार बिगडते बनाते
वैमनस्य बढता जाता
जब कल्पना के पंख लगते |
हर रोज जन्म लेती
कोइ नई कल्पना
फलती फूलती
और पल्लवित होती |
नहीं अंत कोई उसका
स्वप्न भी जो दिखाई देता
होता समन्वय और संगम
कल्पना और सोचा का |
आशा





03 अक्टूबर, 2011

दीवारें


वे चाहते नहीं बातें बनें
ना ही ऐसी वे बढ़ें
खिंचती जाएँ दीवारें दिल में
प्यार दिखाई ना पड़े |
हो सौहार्द और समन्वय
सभी हिलमिल कर रहें
सदभावपर जो भारी हो
कोइ फितरत ऐसी ना हो |
धर्म और भाषा विवाद को
तूल यदि दिया गया
दीवारें खिचती जाएँगी
दरारें भर ना पाएंगी |

आशा


02 अक्टूबर, 2011

स्वार्थ

दिन बदले बदली तारीखें
ऋतुओं ने भी करवट ली
है वही सूरज वही धरती
ओर है वही अम्बर
चाँद सितारे तक ना बदले
पर बदल रहा इनसान |
सृष्टि के कण कण में बसते
तरह तरह के जीव
परिष्कृत मस्तिष्क लिये
है मनुष्य भी उनमें से एक |
फिर भी बाज नहीं आता
बुद्धि के दुरुपयोग से
प्राकृतिक संसाधनों के
अत्यधिक दोहन से |
अति सदा दुखदाई होती
आपदा का कारण बनती
कठिनाई में ढकेलती
दुष्परिणामों को जान कर भी
वह बना रहता अनजान |
बढ़ती आकांक्षाओं के लिये
आधुनिकता की दौड़ में
विज्ञान का आधार ले
है लिप्त स्वार्थ सिद्धि में
जब भी होगा असंतुलन
वही
तो होग कोप भाजन
प्रकृति के असंतुलन
ओर बिगड़ते समीकरण
भारी पड़ेगे उसी पर |
ले जाएंगे कहाँ
यह तक नहीं सोचता
वही कार्य दोहराता है
बस जीता है अपनी
स्वार्थ सिद्धि के लिये |
आशा





01 अक्टूबर, 2011

गांधी एक विचार




आज हम स्वतंत्र भारत के नागरिक है |यह स्वतंत्रता सरलता से नहीं मिल पाई है |
इसके पीछे कई लोगों का योगदान है |कुछ के नाम तो चमके भी पर कई तो गुमनाम ही रह गए | उन नीव के पत्थरों को भुलाना हमारी भूल ही होगी |क्रान्तिकारियों के सक्रीय योगदान को भुलाया नहीं जा सकता |
हिन्दुस्तानी मन से स्वतंत्रता चाहते हुए भी विवश थे क्यूं कि उनको बहुत दबा कर रखा जाता था |कुछ लोगों में संगठन करने की अदभुत शक्ति थी |सुभाष चन्द्र बोस ने तो आजाद हिंद फौज भी बना ली थी आजादी की लड़ाई के लिए | गांधी जी भी भारत की स्वतंत्रता चाहते थे |
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश शासन की अर्थ व्यवस्था खराब होने लगी थी |फिर भी वे भारत पर पूरा हक जमाते थे |
गांधी जी क्रान्ति के पक्षधर थे पर वे रक्त विहीन क्रान्ति चाहते थे |इस लिए उन्होंने असहयोग आंदोलन जैसे कई आन्दोलनों का सहारा ले अंग्रेजों पर दबाव बनाया और भारत को आजाद कराने का अपना सपना पूर्ण किया |
फिर भी वे देश को दो भागों में विभक्त होने से नहीं बचा पाए |वे चाहते थे कि कांग्रेस समाज सेवा करे और राजनीति से दूर रहे |पर कुछ लोग सत्ता के लोभ को ना छोड़ पाए |वे सत्ता सुख चाहते थे |महात्मा गांधी की सत्य अहिंसा और सीमित आवश्यकता की बाते भूल गए |आज हम स्वतंत्र हो कर भी कितने असहाय हें यह बात बार बार मन में उठाती है |
जब उन की गोली मार कर ह्त्या करदी गयी हमने एक महान पथ प्रदर्शक खो दिया |एक संत के प्रति यह जघन्य अपराध था |शायद यही कारण है आज होते विघटन का |
वे राष्ट्र पिता यूँ ही नहीं कहलाते |उनके गुण और सत्कर्मों ने ही उन्हें इस पद पर आसीन किया है |वे हमारे देश के गौरव हें |
आशा


30 सितंबर, 2011

विनती


माँ का हो आशीष शीश पर
छत्रछाया हो उसकी
उसे यहाँ फिर हो भय कैसा
तू करती रक्षा जिसकी |
तेरी जोत जलाने आई
कहना पाई तुझ से
तेरी महिमा जान न पाई
हुआ मगन मन कब से |
आजा माँ मेरे अंगना में
हूँ बहुत अकिंचन सी
देना आशीष मुझे ऐसा
बस हो जाऊं तुलसी

आशा |


29 सितंबर, 2011

तुम ना आए


तुम ना आए इस उपवन में
आते तभी जान पाते
कितने जतन किये
स्वागत की तैयारी में |
अमराई में कुंजन में
जमुना जल के स्पंदन में
कहाँ नहीं खोजा तुमको
इस छोटे से जीवन में |
खोजा गलियों में
कदम के पेड़ तले
तुम दूर नज़र आए
मगन मुरली की धुन में |
पलक पावडे बिछाए थे
उस पल के इन्तजार में
वह होता अनमोल
अगर तुम आ जाते |
आते यदि अच्छा होता
सारा स्नेह वार देती
प्यारी सी छबी तुम्हारी
मन में उतार लेती |
बांधती ऐसे बंधन में
चाहे जितनी मिन्नत करते
कभी न जाने देती
अपनी मन बगिया से |
आशा





27 सितंबर, 2011

दिल किसे कहें


है पुंज भावानाओं का
या हिस्सा शरीर का
पर सभी बातें करते
दिल की दिलदारी की |
पल सुख के हों या दुःख के
दौनों ही प्रभावित करते
धडकनें तीव्र होती जातीं
चैन न आ पाता उसको |
हर रंग प्रकृति का
सवाल कर झझकोरता उसे
कभी कोइ जज़बाती करता
बेचैन कर जाता उसे |
मस्तिष्क से उठाती तरंगें
संकेत कुछ देती उसे
वह भावों में डूबा रहता
कल्पनाओं में जीता |
क्या है वह वही दिल
जिसके होते चर्चे आम
दिल लेने देने की बातें
होती रहती सरे आम |
फिर भी कुछ तो होते ऐसे
जो हृदय हीन दिखाई देते
कोइ भी अवसर हो
अनर्गल बातें करते |
पर संवेदनशील हुए बिना
वे कैसे हें रहा पाते
है विचारणीय होता दिल क्या
और
घर कहाँ उसका |
है बड़ी दुविधा किसे दिल कहें
उसे तो नहीं जो धड़के शरीर में
या वह जिसका घर होता
मन मस्तिष्क में |
आशा







26 सितंबर, 2011

मेरा अस्तित्व


तू बरगद का पेड़
और मैं छाँव तेरी
है यदि तू जलस्त्रोत
मैं हूँ जलधार तेरी |
तू मंदिर का दिया
और मैं बाती उसकी
अगाध स्नेह से पूर्ण
मैं तैरती उसमे |
तूने जो चाहा वही किया
उसे ही नियति माना
ना ही कोइ बगावत
ना ही विरोध दर्ज किया |
पर ना जाने कब
पञ्च तत्व से बना खिलौना
अनजाने में दरक गया
सुकून मन का हर ले गया |
कई सवाल मन में आए
वे अनुत्तरित भी न रहे
पर एक सवाल हर बार
आ सामने खडा हुआ |
है क्यूँ नहीं अस्तित्व मेरा
वह कहाँ गुम हो गया
मेरा वजूद है बस इतना
वह तुझ में विलीन हो गया |
आशा




23 सितंबर, 2011

ओ अजनवी


जान न पाया कहाँ से आई
ओर हों कौन ओ अजनवी
जाने कब तुम्हारा आना
मेरे जीने का बहाना हों गया |
ये सलौना रूप और पैरहन
और आहट कदमों की
छिप न पाये हजारों में
ले चले दूर बहारों में |
दिल में हुई हलचल ऐसी
सम्हालना उसे मुश्किल हुआ
हर शब्द जो ओंठों से झरा
हवा में उछला फिज़ा रंगीन कर गया |
हों तुम पूरणमासी
या हों धुप सुबह की
साथ लाई हों महक गुलाब की
तुम्ही से गुलशन गुलजार हों गया |
चहरे का नूर और अनोखी कशिश
रंगीन इतनी कि
रौशनी का पर्याय हों गयी |
दिल में कुछ ऐसे उतारी
गहराई तक उसे छु गयी
वह काबू में नहीं रहा
कल्पना में खो गया |

आशा


22 सितंबर, 2011

मन बावरा


मन बावरा खोज रहा
घनी छाँव बरगद की
चाहत है उसमे
बेपनाह मोहब्बत की |
यहाँ वहाँ का भटकाव
और सब से होता अलगाव
अब सहन नहीं होता
एकांत पा बेचैन होता |
अब चाहता ठहराव
अपने धुमंतू जीवन में
समय भी ठहर जाए
भर दे नई ऊर्जा ह्रदय में |
अब तक अनवरत
भागता रहा
बचपन कब बीता
याद नहीं आता |
है सुख का पल क्या
जान नहीं पाता
बस भागता रहता
कुछ पाने की तलाश में |
चाहता है क्या ,जानता नहीं
पर है इतना अवश्य
कहीं गुम हो गयी है
पहचान मेरी |
अब ऊब गया इस बेरंग उदास
एक रस जीवन से
बच नहीं पाया
अस्थिरता
के दंशों से |
जन्म से आज तक
पल दो पल की भी
शान्ति न मिल पाई
इस बंजारा जीवन में |
पर अब भी है दुविधा बाकी
क्या यह ठहराव
दे पाएगा आज भी
कुछ पल का सुकून |

आशा



















20 सितंबर, 2011

ताज महल


उस दिन एक गाइड ने
कहानी कही अपने अंदाज में
वह आगे बढता जाता था
कई कहानी ताज की सुनाता था |
उसी से सुनी थी यह भी कहानी
विश्वास तो तब भी न हुआ था
इतना नृशंस शहंशाह होगा
मन को यह स्वीकार न हुआ |
निर्माण कार्य में जुटे कारीगर
दूर दूर से आए थे
कुशल इतने अपने हुनर में
थी न कोइ सानी उनकी |
ताज महल के बनाते ही
वे अपने हाथ गवा बैठे
था फ़रमान शाहजहां का
जो बहुत प्रेम करता था
अपनी बेगम मुमताज से |
वह चाहता न था
कोइ ऐसी इमारत और बने
जो ताज से बराबरी करे |
जीवन के अंतिम पलों में
था जब बेटे की कैद में
अनवरत देखता रहता था
इस प्रेम के प्रतीक को |
आज भी बरसात में
दौनों की आरामगाह पर
जो बूँदें जल की गिरती हैं
दिखती परिणीति परम प्रेम की |
यह कोइ नहीं कहता
अकुशल थे कारीगर
बस यही सुना जाता है
आकाश से प्रेम टपकता है |

आशा




18 सितंबर, 2011

कल्पना के पंख


जीवन में पंख लगाए
आसमान छूने को
कई स्वप्न सजाए
साकार उन्हें करने को |
उड़ती मुक्त आकाश में
खोजती अपने अस्तित्व को
सपनों में खोई रहती थी
सच्चाई से दूर बहुत |
पर वह केवल कल्पना थी
निकली सारी खोखली बातें
ठोस धरातल छूते ही
लगा वे थीं सतही बातें |
और तभी समझ पाई
कल्पना हैं ख्याली पुलाव
होते नहीं सपने भी सच्चे
होती वास्तविकता कुछ और |

आशा

16 सितंबर, 2011

नफ़रत



कई परतों में दबी आग
अनजाने में चिनगारी बनी
जाने कब शोले भड़के
सब जला कर राख कर गए |
फिर छोटी छोटी बातें
बदल गयी अफवाहों में
जैसे ही विस्तार पाया
वैमनस्य ने सिर उठाया |
दूरियां बढ़ने लगीं
भडकी नफ़रत की ज्वाला
यहाँ वहां इसी अलगाव का
विकृत रूप नज़र आया |
दी थी जिसने हवा
थी ताकत धन की वहाँ
वह पहले भी अप्रभावित था
बाद में बचा रहा |
गाज गिरी आम आदमी पर
वह अपने को न बचा सका
उस आग में झुलस गया
भव सागर ही छोड़ चला |

आशा





15 सितंबर, 2011

वह दृष्टि


वे आँखें क्या जो झुक जायें
मन में है क्या, न बता पायें
पर मनोभाव पढ़ने के लिए
होती आवश्यक नज़र पारखी |
भावों की अभिव्यक्ति के लिये
होती है कलम आवश्यक
वह कलम क्या जो रूक जाये
भावों को राह न दे पाये |
मन में उठते भावों को यदि
लेखनी का सानिध्य मिले
सशक्त लेखनी से जब
शब्दों को विस्तार मिले
वह दृष्टि क्या, जो न पढ़ पाये
उनका अर्थ न समझ पाये |

आशा



14 सितंबर, 2011

हिन्दी से परहेज कैसा

भाषा अपनी भोजन अपना
रहने का अंदाज है अपना
भिन्न धर्म और नियम उनके
फिर भी बंधे एक सूत्रे से |
है देश के प्रति पूरी निष्ठा
रहते सब भाई चारे से
भारत में रहते हैं
हिन्दुस्तानी कहलाते हैं
फिर भाषा पर विवाद कैसा |
विचारों की अभिव्यक्ति के लिए
सांझा उनको करने ले लिए
कोइ तो भाषा चाहिए
हो जो सहज सरल
ओर बोधगम्य
लिए शब्दों का प्रचुर भण्डार |
हिन्दी तो है सम्मिलित रूप
यहाँ प्रचलित सभी भाषाओं का
जो भी उसे अपनाए
लगे वह उनकी अपनी सी |
जब इंग्लिश सीख सकते हैं
उसे अपना सकते है
फिर हिन्दी को अपनाने से
राष्ट्र भाषा स्वीकारने में
है परहेज कैसा ?
आशा





12 सितंबर, 2011

तुम तो कान्हां निकले


तुमने यह कैसा नेह किया ,कितना सताया तुमने |
ना ही कभी पलट कर देखा ,राह भी देखी उसने |
प्रीत की पेंगें बढ़ाई क्यूं ,तुम तो कान्हां निकले |
याद न आई राधा उनको ,जब गोकुल छोड़ चले |
आशा

11 सितंबर, 2011

मुस्कान रूठ जाएगी


जाने कितनी यादें

दिल में समाई

जब भी झांका वहाँ

तुम ही नजर आए |

वे सुनहरे दिन

वे उल्हाने वे वादे

सारा चैन हर लेते थे

जाने कब पलक झपकती थी

कब सुबह हो जाती थी |

स्वप्नों के झूलों में झूली

राह देखना तब भी न भूली

अधिक देर यदि हो जाती

बहुत व्यथित होती जाती |

द्वार पर होती आहट

मुझे खींच ले जाती तुम तक

नज़रों से नजरें मिलते ही

कली कली खिल जाती |

वे बातें कल की

भूल न पाई अब तक

हो आज भी करीब मेरे

पर प्यार की वह उष्मा

हो गयी है गुम |

कितने बदल गए हो

दुनियादारी में उलझे ऐसे

उसी में खो गए हो

सब कुछ भूल गए हो |

कोइ प्रतिक्रया नहीं दीखती

भाव विहीन चेहरा रहता है

गहन उदास चेहरा दीखता है

हंसना तक भूल गए हो |

इस दुनिया में जीने के लिए

ग्रंथियों की कुंठाओं की

कोइ जगह नहीं है

उन्हें भूल ना पाओ

ऐसी भी कोइ वजह नहीं है |

खुशियों को यदि ठोकर मारी

वे लौट कर न आएंगी

जीवन बोझ हो जाएगा

मुस्कान रूठ जाएगी |

आशा

10 सितंबर, 2011

कशमकश




  • उस दिन तो बरसात न थी
    मौसम सुखमय तब भी न लगा
    सब कुछ था पहले ही सा
    फिर मधुर तराना क्यूं न लगा |
    शायद पहले बंधे हुए थे
    कच्चे धागों की डोर से
    लगती है वह टूटी सी
    सूखी है हरियाली मन की |
    सुबह वही और शाम वही
    है रहने का स्थान वही
    पर लगता वीराना सारा मंजर
    रहता मन बुझा बुझा सा |
    यादों की दुनिया से बाहर
    आने की कशमकश में
    होती है बहुत घुटन
    पर है अनियंत्रित मन |
    मन नहीं चाहता
    किसी और बंधन में बंधना
    अब फंसना नहीं चाहता
    दुनियादारी के चक्रव्यूह में|










07 सितंबर, 2011

प्याज क छिलके


आचरण समाज का

है प्याज के छिलके सा

जब तक उससे चिपका रहता

लगता सब कुछ ठीक सा |

हैं अंदर की परतें

समाज में होते परिवर्तन की

प्रतीक लगती हैं

अंदर होते विघटन की |

दिखते सभी बंधे एक सूत्र में

फिर भी छिपते एक दूसरे से

पीठ किसी की फिरते ही

खंजर घुसता पीछे से |

तीव्र गंघ आती है

किसी किसी हिस्से से

यदि काट कर न फेंका उसे

प्रभावित और भी होते जाते |

ये तो हैं अंदर की बातें

बाहर से सब एक दीखते

आवरण से ढके हुए सब

अच्छे प्याज की मिसाल दीखते |

बाह्य परत उतरते ही

स्पष्ट नजर आते

टकराव और बिखराव

उसी संभ्रांत समाज में |

है कितनी समानता

प्याज में और समाज में

छिलके उतरते ही

दौनों एकसे नजर आते |

फिर असली चेहरा नजर आता

खराब होते प्याज का

या विघटित होते समाज का

जैसे ही छीला जाता

आंखें गीली कर जाता |

आशा