29 दिसंबर, 2011
आने को है नया साल
27 दिसंबर, 2011
सुगंधित बयार
25 दिसंबर, 2011
सांता क्लाज
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiLNFuwR-sI-abfOiHMK4r5n8mQ-hIHb0uXMMziZMDEvZNCg2B4dcYyUfNZf1OYajTo15RGaWKLgWpvr4fl3G5nIuBIJQrtBVMHnjZNezj7Roviy4-1WtiKqfyPT44LvVh03Bs_yhpiDmA/s320/images.jpeg)
कहाँ से आए
बच्चों से तुम्हारा कैसा नाता
वे पूरे वर्ष राह देखते
मिलने को उत्सुक रहते |
क्या नया उपहार लाये
झोली में झांकना चाहते
बहुत प्रेम उनसे करते हो
वर्ष में बस एक ही बार
आने का सबब क्यूं न बताते |
बहुत कुछ दिया तुमने
प्यार दुलार और उपहार
सभी कुछ ला दिया तुमने
सन्देश प्रेम का दिया तुमंने |
तभी तो हर वर्ष तुम्हारा
इन्तजार सभी करते हैं
आवाज चर्च की घंटी की सुन
खुशी से झूम उठते हैं |
हैप्पी क्रिसमस ,मैरी क्रिसमस
बोल गले मिलते हैं
तुम्हारे आगमन की खुशी में
गाते नाचते झूमते झामते
केक काट खाते मिल बाँट
मन से जश्न खूब मनाते |
आशा
23 दिसंबर, 2011
अंदाज अलग जीने का
हूँ स्वप्नों की राज कुमारी
या कल्पना की लाल परी
पंख फैलाए उडाती फिरती
कभी किसी से नहीं डरी |
पास मेरे एक जादू की छड़ी
छू लेता जो भी उसे
प्रस्तर प्रतिमा बन जाता
मुझ में आत्म विशवास जगाता |
हूँ दृढ प्रतिज्ञ कर्तव्यनिष्ठ
हाथ डालती हूँ जहां
कदम चूमती सफलता वहाँ |
स्वतंत्र हो विचरण करती
छली न जाती कभी
बुराइयों से सदा लड़ी
हर मानक पर उतारी खरी |
पर दूर न रह पाई स्वप्नों से
भला लगता उनमें खोने में
यदि कोइ अधूरा रह जाता
समय लगता उसे भूलने में |
दिन हो या रात
यदि हो कल्पना साथ
होता अंदाज अलग जीने का
अपने मनोभाव बुनने का |
आशा
20 दिसंबर, 2011
सुकून
जब भी मैंने मिलना चाहा
सदा ही तुम्हें व्यस्त पाया
समाचार भी पहुंचाया
फिर भी उत्तर ना आया |
ऐसा क्या कह दिया
या की कोइ गुस्ताखी
मिल रही जिसकी सजा
हो इतने क्यूँ ख़फा |
है इन्तजार जबाव का
फैसला तुम पर छोड़ा
हैं दूरियां फिर भी
यूँ न बढ़ाओ उत्सुकता
कुछ तो कम होने दो
है मन में क्या तुम्हारे
मौन छोड़ मुखरित हो जाओ |
हूँ बेचैन इतना कि
राह देखते नहीं थकता
जब खुशिया लौटेंगी
तभी सुकून मिल पाएगा |
आशा
18 दिसंबर, 2011
पाषाण या बुझा अंगार
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEggt0P1fcSPLNJsazG4nekUhhahzjHDvdBteuaGYVbAPdOS19aphAnl1IquryoxnI6z1HHO5_cQmF2wUaY8Ew-LyBQ8_WjGrRinm1I7Nqc4LIvAriuRlOj4EdrXSzT3hPBuw3Qblh5IP_s/s320/images.jpeg)
भावना शून्य ह्रदय लिए
ना कोइ उपमा ,अलंकार
या आसक्ति सौंदर्य के लिए |
जब भी सुनाई देती
टिकटिक घड़ी की
होता नहीं अवधान
ना ही प्रतिक्रया कोई |
है लोह ह्रदय या शोला
या बुझा हुआ अंगार
सब किरच किरच हो जाता
या भस्म हो जाता यहाँ |
है पत्थर दिल
खोया रहता अपने आप में
सिमटा रहता
ओढ़े हुए आवरण में |
ना उमंग ना कोई तरंग
लगें सभी ध्वनियाँ एकसी
हृदय में गुम हो जातीं
खो जाती जाने कहाँ |
कभी कुछ तो प्रभाव होता
पत्थर तक पिधलता है
दरक जाता है
पर है न जाने कैसा
यह संग दिल इंसान |
आशा
16 दिसंबर, 2011
कैसा अलाव कैसा जाड़ा
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgyB8cR86qGUexkKPRsmb9Ip3DL2oq3XfvYu2DxJduEMWbtkgfvp4dM46SGrrahH6HmHcBDg3aY4Rd7P4Kh-gmOBMJ5crsCNB2AfBLyfOJFBe2ZAC6Ga4GFRkdAFNuliMG5xNTZnyb8xe0/s320/images.jpeg)
सर्दी का मौसम ,जलता अलाव
बैठे लोग घेरा बना कर
कोइ आता कोइ जाता
बैठा कोइ अलाव तापता |
आना जाना लगा रहता
फिर भी मोह छूट न पाता
क्यूँ कि कड़ी सर्दी से
है गहरा उसका नाता |
एक किशोर करता तैयारी
मार काम की उस पर भारी
निगाहें डालता ललचाई
पर लोभ संवरण कर तुरंत
चल देता अपने मार्ग पर |
कैसा अलाव कैसा जाड़ा
उसे अभी है दूर जाना
अब जाड़ा उसे नहीं सताता
है केवल काम से नाता |
आशा
14 दिसंबर, 2011
छुईमुई
अभिराम छवि उसकी |
निर्विकार निगाहें जिसकी ,
अदा मोहती उसकी ||
जब दृष्टि पड़ जाती उस पर ,
छुई मुई सी दिखती |
छिपी सुंदरता सादगी में,
आकृष्ट सदा करती ||
संजीदगी उसकी मन हरती,
खोई उस में रहती |
गूंगी गुडिया बन रह जाती ,
माटी की मूरत रहती ||
यदि होती चंचल चपला सी ,
स्थिर मना ना रहती |
तब ना ही आकर्षित करती ,
ना मेरी हो रहती ||
आशा
11 दिसंबर, 2011
अनूठा सौंदर्य
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHPQQFZbgGkLZDbkM-DN4g-D-mPyyOMSfNCrni_yTD_JT_oAAPwVU2CqO-QjO8XbKiBd47RFUOCFxzZ6ReNTURruxl04A2BfjSt_Hue2koDOucKdWiE7VPWbfoepkqkvEqZYeF6Uz1_qU/s320/images.jpeg)
बर्फ से ढकीं हिमगिर चोटियाँ
लगती दमकने कंचन सी
पा आदित्य की रश्मियाँ |
दुर्गम मार्ग कच्चा पक्का
चल पाना तक सुगम नहीं
लगा ऊपर हाथ बढाते ही
होगा अर्श मुठ्ठी में |
जगह जगह जल रिसाव
ऊपर से नीचे बहना उसका
ले कर झरने का रूप अनूप
कल कल मधुर ध्वनि करता |
जलधाराएं मिलती जातीं
झील कई बनती जातीं
नयनाभिराम छबी उनकी
मन वहीँ बांधे रखतीं |
कभी सर्द हवा का झोंका
झझकोरता सिहरन भरता
हल्की सी धुप दिखाई देती
फिर बादलों मैं मुंह छिपाती |
एकाएक धुंध हो गयी
दोपहर में ही शाम हो गयी
अब न दीखता जल रिसाव
ना ही झील ना घाटियाँ |
बस थे बादल ही बादल
काले बादल भूरे बादल
खाई से ऊपर आते बादल
आपस में रेस लगाते बादल
मन में जगा एक अहसास
होते हैं पैर बादलों के भी
आगे बढ़ने के लिए
आपस में होड़ रखते हैं
आगे निकलने के लिए |
आशा
10 दिसंबर, 2011
है नाम जिंदगी इसका
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg2odfn2kCmTsPAFMBrEKegwnIEnMmku6Ub-yIr42FHtc2csOqQAMwUZawlknZ31hhB85oqiej2lqv11PgKAEPGcjAJyvMpALvrABJBYp0UG8sfNXu9kuijqml7FQCgLm0fxlrbkrPDhsk/s320/images.jpeg)
है नाम जिंदगी इसका
सोचो समझो विचार करो
फिर जीने की कोशिश करो |
यत्न व्यर्थ नहीं जाएगा
जिंदगी फूल सी होगी
जब समय साथ देगा
जीना कठिन नहीं होगा |
माना कांटे भी होंगे
साथ कई पुष्पों के
दे जाएगे कभी चुभन भी
इस कठिन डगर पर |
फिर भी ताजगी पुष्पों की
सुगंध उनके मकरंद की
साथ तुम्हारा ही देगी
तन मन भिगो देगी |
होगा हर पल यादगार
कम से कमतर होगा
कष्टों का वह अहसास
जो काँटों से मिला होगा |
सारा बोझ उतर जाएगा
छलनी नहीं होगा तन मन
कठिन नहीं होगा तब उठाना
इस फूलों भरी टोकरी को |
आशा
09 दिसंबर, 2011
छंद लेखन
होगी कठिन इतनी परिक्षा ,यही तो जाना न था ||
फिर भी प्रयत्न नहीं छोड़ा ,बार बार नया लिखा |
ना पा सकी सफलता तब भी ,ध्यान मात्रा का रखा ||
यह नहीं सोचा हो गेय भी ,भावना में खो गयी |
गणना में मात्रा की उलझी ,सोचती ही रह गयी ||
सफलता से है दूरी अभी ,आज तक समझा यही |
मन मेरा यह नहीं मानता ,चाहता जाना वहीँ ||
आशा
06 दिसंबर, 2011
मन भ्रमित मेरा
तुम हो ही इतनी प्यारी सी ,मन मोह लिया तुमने ||
मृदु मुस्कान लिए अधरों पर ,यूँ समक्ष आ गईं |
सावन की घनघोर घटा सी ,अर्श में छाती गयी ||
नहीं सोच पाया मैं अभी तक ,है ऐसा क्या तुम में |
रहता हूँ खोया खोया सा ,स्वप्नों में भी तुम में ||
क्या तुम भी वही सोचती हो ,करती हो प्यार मुझे |
या है मन भ्रमित मेरा ही ,तुम छलती रहीं मुझे ||
आशा
04 दिसंबर, 2011
नया अंदाज
हर शै पर पशेमा हुए
था न कोइ कंधा सर टिकाने को
जी भर के आंसू बहाने को |
हर बार ही धोखा खाया
बगावत ने सर उठाया
हमने भी सभी को बिसराया
हार कर भी जीना आया |
है दूरी अब बेजारी से
नफ़रत है बीते कल से
अब कोइ नहीं चाहिए
अपना हमराज बनाने को |
सूखा दरिया आंसुओं का
भय भी दुबक कर रह गया
है बिंदास जीवन अब
और नया अंदाज जीने का |
आशा
02 दिसंबर, 2011
कोइ वर्जना नहीं
अनजाने में जाने कहाँ
बिना घर द्वार
जीवन से हो कर बेजार |
राहें जानता नहीं
है शहर से अनजान
पहचानता नहीं
अपने ही साए को
अनजान निगाहों को |
आगे बढ़ता बिना रुके
यह अलगाव
यह भटकाव
ले जाएगा कहाँ उसे |
चाहता नहीं कोइ रोके टोके
जाने का कारण पूंछे
खोना ना चाहे आजादी
वर्जनाओं का नहीं आदी |
है स्वतंत्र स्वच्छंद
चाहता नहीं कोइ बंधन
बस यूं ही विचरण कर
अपने अस्तित्व पर ही
करता प्रश्न |
आशा
30 नवंबर, 2011
Temptation
The morning breeze
Attracts me
The rising sun
Touches me
Walking zone calls me
Temptation is so high
I fly in the sky
Being soft and silky
The shining rays
Catch me
They play hide and seek
In dreams only
Alas I have awaken
And no rays are there
To play with me ।
Asha
28 नवंबर, 2011
तलवार परीक्षा की
अब तलक चलता रहा |
लटकी तलवार परिक्षा की ,
अनकहा कुछ न रहा ||
जो भी कोशिश की थी तुमने ,
काम तो आई नहीं |
यही लापरवाही तुम्हारी ,
रास भी आई नहीं ||
है परिक्षा अब तो निकट ही ,
विचारों में मत बहो |
सारे समय उसी की सोचो
उसी में डूबे रहो ||
करो न बरबादी समय की ,
मेरा कहा मान लो |
जो ठान लोगे अपने मन में ,
होनी वही जान लो ||
आशा
25 नवंबर, 2011
छलावा
पल पल रंग बदलती है
है जटिल स्वप्न सी
कभी स्थिर नहीं रहती |
जीवन से सीख बहुत पाई
कई बार मात भी खाई
यहाँ अग्नि परीक्षा भी
कोई यश न दे पाई |
अस्थिरता के इस जालक में
फँसता गया ,धँसता गया
असफलता ही हाथ लगी
कभी उबर नहीं पाया |
रंग बदलती यह जिंदगी
मुझे रास नहीं आती
जो सोचा कभी न हुआ
स्वप्न बन कर रह गया |
छलावा ही छलावा
सभी ओर नज़र आया
इससे कैसे बच पाऊँ
विकल्प नज़र नहीं आया |
आशा
23 नवंबर, 2011
कैसा जीवन पथ
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh9Cv7_o-iKrt2lo-G5vL8uo1H8Ws-Z8PALv1SfjkkSidcmu1VvUkUHyBRME9i6X7pm9B3V5vMjsvoSZNS3jgGDLTRq_onMQWedXxu1tZkgDZkmXWGklAVzctkwleAzytq6CP4KS_UX4Sk/s320/images.jpeg)
यह कैसी दरार पड़ गयी
प्यार नाम की चिड़िया
कहीं कूच कर गयी |
पत्ता डाल से टूटा
सभी कुछ बेगाना लगा
जाने कब सांझ उतर आई
गुत्थी और उलझ गयी |
जितना भी सुलझाना चाहा
ऊन सी उलझती गयी
कंगन की गांठों की तरह
और अधिक कसती गयी |
एक हाथ से न खुल पाई
झटका दिया तोड़ डाला
है तेरी यह रुसवाई कैसी
सारी खुशियाँ ले गयी |
ना गिला ना कोइ शिकवा
फिर भी दूरी बढ़ गयी
जीवन की मधुरता को
जाने किसकी नज़र लगी |
आशा
20 नवंबर, 2011
कहीं संकेत तो नहीं
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjqDnnn25wWySiy8WhL-POQIq7xbhrg-oMcGR21M0ErYQLbDhG0aTiB3AFVnT4hbc_r5Zi0OSUcGgTC-YTCEoJ41u9g3HwFZ0nE_QHrq_w76bDeWL6VgF_KBbOEHPISWwMh9KsVxuI3-SI/s320/images.jpeg)
जब भी धधकती है
बाहर निकलती है
थर्रा देती सारी कायनात |
मन ही मन जलता आया
सारा अवसाद छिपाया
सारी सीमा पार हों गयी
सहनशक्ति जबाब दे गयी |
विस्फोट हुआ ज्वाला निकली
धुंआ उठा चिंगारी उड़ीं
हाथ किसी ने नहीं बढाया
साथ भी नहीं निभाया |
समझा गया हूँ क्रोधित
इसी से आग उगल रहा
पर कारण कोइ न जान पाया
मन मेरा शांत न कर पाया |
बढ़ने लगी आक्रामकता
तब भयभीत हो राह बदली
बरबादी के कहर से
स्वयम् भी न बच पाया |
बढ़ी विकलता ,आह निकली
बहने लगी अश्रु धारा
पर शांत भाव आते ही
ज़मने लगी , बहना तक भूली |
फिर जीवन सामान्य हो गया
कुछ भी विघटित नहीं हुआ
है यह कैसी विडंबना
सवाल सहनशीलता पर उठा |
बार बार आग उगलना
फिर खुद ही शांत होना
कहीं यह संकेत तो नहीं
सब कुछ समाप्त होने का |
आशा
18 नवंबर, 2011
एक मोहरा
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj8judLboKkmC4xA8gYswF9up75gIhnzxQ22_4SPIkx4_9TTlp3z-FifLtHYlJZV_rTwx8cZuC4J5dxwXraPRW353FYk_j9sLEBE0whDmBkITv3xGrEZgx4D0uETpNmxaLnvszo8fmblnw/s320/images.jpeg)
भरम में फंसते गए
नादाँ थे जो जान न पाए
गर्त में धंसते गए |
मार्ग न पाया उचित जब तक
भटकाव सहते गए
साथी न पाया अर्श तक जब
फलसफे बनते गए |
ना बेवफाई की तुम्हारी
आहट तक उन्हें मिली
प्यार में धोखा खाते गए
रुसवाई उन्हें मिली |
यूँ तो न थे वे प्रिय तुम्हें भी
मानते यह क्यूँ नहीं
वे थे तुम्हारा एक मोहरा
स्वीकारते क्यूँ नहीं |
आशा
15 नवंबर, 2011
स्वर्ग वहीं नजर आया
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiiPR0U389mAtUZELt0tqQQLZ8zKWC2-3NcI1s4mOWJI1eNdylGJKOXOKNvDzwmzCAGEgss9mfmJSmdt3-j3jhAQyBWxDwjfogSpSy1Y3w3mn4HNS77-uM84ZxmCNMWnWyYph1ARZmxryo/s320/images.jpeg)
लहराते बल खाते रास्ते
था अटूट साम्राज्य जहां
प्राकृतिक वन संपदा का |
थे कहीं वृक्ष गगन चुम्बी
करते बातें आसमान से
चाय के बागान दीखते
हरे मखमली गलीचे से |
हरी भरी वादी के आगे
थी श्रंखला हिम गिरी की
था दृश्य इतना विहंगम
वहीं रमण करता मन |
ऊंचे नीचे मार्गों पर
सरल न था आगे बढ़ना
सर्द हवा के झोंके भी
हिला जाते समूचा ही |
फिर भी कदम ठिठक जाते
आगे बढ़ाना नहीं चाहते
प्रकृति के अनमोल खजाने को
ह्रदयंगम करते जाते |
जब अपने रथ पर हो सवार
निकला सूर्य भ्रमण पर
था तेज उसमें इतना
हुआ लाल सारा अम्बर |
प्रथम किरण की स्वर्णिम आभा
समूची सिमटी बाहों में
उससे ही श्रृंगार किया
हिम गिरी के उत्तंग शिखर ने |
उस दर्प का क्या कहना
जो उस पर छाता गया
दमकने लगा वह कंचन सा
स्वर्ग वहीं नजर आया |
आशा
13 नवंबर, 2011
वे दिन
सोती जगती हंसती आँखें
तन्हाई की बरसातें
जीवन की करती बातें |
सुबह की गुनगुनी धूप ने
पैर पसारे चौबारे में
हर श्रृंगार के पेड़ तले
बैठी धवल पुष्प चादर पर
लगती एक परी सी |
थे अरुण अधर अरुणिम कपोल
मधुर मदिर मुस्कान लिए
स्वप्नों में खोई हार पिरोती
करती प्रतीक्षा उसकी |
कभी होती तकरारें
सिलसिले रूठने मनाने के
कई यत्न प्यार जताने के
जिसे समीप पाते ही
खिल उठाती कली मन की |
वे दिन लौट नहीं पाते
बस यादें ही है अब शेष
कभी जब उभर आती है
वे दिन याद दिलाती हैं |
आशा
04 नवंबर, 2011
सृजन के लिए
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgu7kh-c_Gdc33pdgdbH6-CuAAfBnMfONYrFEPt4lDbEkcSLdxHO1xv4ZIxZhONxnONtUp1a6089xHUZvqtR5NA8khV536nKoEGcfhm5EFK5a1G86EAQ8a_OLC_Wak1xV6qK6nmSu4Mt0U/s320/images.jpeg)
कुछ बस गया कुछ खो गया
दिल के किसी कौने में
कई परतों में दब गया |
दी दस्तक जब किसी ने
स्वप्नलोक में खो गया
अनेकों उड़ानें भरी
कुछ नई ऊर्जा मिली |
शायद था यह भ्रम
या था अंतरनिहित भाव
पर था अनुभव अनूठा
गुल गुलशन महका गया |
महावारी पैरों तले मखमली हरियाली
और वही मंथर गति कदमों की
घुलते से मधुर स्वर कानों में
कुछ बिम्बों का अहसास हुआ |
साकार कल्पना करने को
कुछ शब्द चुने कागज़ खोजे
ज्वार भावों का न थम पाया
नव गीत का श्रृंगार किया |
शब्दों का लिवास मिलते ही
कुछ अधिक ही निखार आया
जब भी उसे गुनगुनाया
कलम ने हाथ आगे बढ़ाया |
नई कृति नया सृजन नए भाव
प्रेरित होते बिम्बों से
जिनके साकार होते ही
सजने लगते नए सपने |
आशा
03 नवंबर, 2011
कसौटी
है गीत की यह रीत, गाने - की विकलता, बढ़ गयी।१।
वह गीत गाती, गुनगुनाती, वादियों में घूमती।
मौसम मधुर का पान करती, मस्तियों में झूमती।।
मिलना न था सो मिल न पाई, क्वचिद मज़बूरी रही।२।
बीते दिनों की याद उसको, जब सताने लग गयी।
तब याद जो मुखड़े रहे, वह, गुनगुनाने लग गयी।।
फिर भूल कर सुध-बुध, मगन-मन, भक्ति-रस पीने लगी।३।
तब तोड़ कर बंधन जगत से, प्रभु भजन में खो गयी।
अनुरोध मन का मान कर, वह, कृष्ण प्यारी हो गयी।।
हर पल कसौटी तुल्य था, पर, पर्व से कमतर न था।४।
आशा
02 नवंबर, 2011
मीत बावरा
पाया न सामने जब उसको ,भावना में बह गया |
थी बेचैन निगाहें उसकी ,ना ही धरा पैरों तले
जाने कब तक यूं ही भटका , न पाया जब तक उसे |
भागा हुआ वह गया अपनी ,प्रियतमा की खोज में
पा दूर से ही झलक उसकी ,ठंडक आई सोच में |
आया नियंत्रण साँसों पर , आहट पाकर उसकी
मुस्कानों में खो गया , थी वह जन्नत उसकी |
आशा
29 अक्तूबर, 2011
असफल क्यूं
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgx6Aif_LpDh5sicXvMk4wBOuqb2PcTy3QCjgYhzQYQRWv_lPuO9YvX6bFfyD_SrQOGaZU_kuTswzfcCkD5MF1wbwMyl7Oza8dtTeZjLtWqRBlEqgj7roB5DV4NrnlTl09xDXvpjtKx86k/s320/images.jpeg)
जीवन में लगे ग्रहण को
पहले न था अवरोध कहीं
थी जिंदगी भी सरल कहीं |
परिवेश बदला वह बदली
पर समायोजन न कर पाई
होता संघर्ष ही जीवन
यह तक न जान पाई |
नितांत अकेली रह गयी
अन्तरमुखी होती गयी
उचित सलाह न मिल पाई
विपदाओं में घिरती गयी |
रोज की तकरार में
आस्था डगमगा गयी
हर बार की तकरार में
मन छलनी होता गया |
माना न खोला द्वार उसने
बंद किया खुद को कमरे में
क्या न था अधिकार उसको
लेने का स्वनिर्णय भी |
आज है सक्षम सफल
फिर भी घिरी असुरक्षा से
कभी विचार करती रहती
शायद है उसी में कमीं |
विपरीत विचारों में खोई
समझ न पाई आज तक
चूमती कदम सफलता बाहर
निजि जीवन में ही असफल क्यूँ ?
27 अक्तूबर, 2011
कुछ विचार बिखरे बिखरे
अनुरोध निकला खोखला ,प्रिय आपने यह क्या किया |
बीती बातें वह ना भूला ,कोशिश भी की उसने
इन्तजार भी कब तक करता ,गलत क्या किया उसने |
है आज बस अनुरोध इतना ,घर में आकार रहिये
रूखा सूखा जो वह खाता ,पा वही संतुष्ट रहिये |
आज छत्र छाया में तुम्हारी ,अभय दान मिले मुझे
पाऊँ जो आशीष तुम्हारा ,कहीं रहे ना भय मुझे |
जो भी थे कल तक तुम्हारे ,वे किसी के हो गए
इन्तजार व्यर्थ लगता उनका ,जो दुखी कर चल दिए |
आशा
23 अक्तूबर, 2011
कशिश उसकी
20 अक्तूबर, 2011
दीपावली
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgzhqWPqo07aJtRjXP8IEcKVzp-kWjjNZ7l43MiMmA-S2786VKw9ZH-7tFeaR3-w1kihiNLZuVNFFHv3_zg8ST26KJqP6GmcDB6KYBbFLdR8fK29h6lMA0TEYYdq7y3ZHG93mKWhpJUx4w/s320/index.jpeg)
अंधेरी रात अमावस की
दीपावली आई तम हरने
लाई सौगात खुशियों की |
कहीं जले माटी के दीपक
रौशन कहीं मौम बत्ती
चमकते लट्टू बिजली के
विष्णु प्रिया के इन्तजार में |
बनने लगी मावे की गुजिया
चन्द्रकला और मीठी मठरी
द्वार खुला रखा सबने
स्वागतार्थ लक्ष्मी के |
आतिशबाजी और पटाखे
हर गली मोहल्ले में
नन्ही गुडिया खुश होती
फुलझड़ी की रौशनी में |
समय देख पूजन अर्चन
करते देवी लक्ष्मी का
खील बताशे और मिठाई
होते प्रतीक घुलती मिठास की |
दृश्य होता मनोरम
तम में होते प्रकाश का
होता मिलन दौनों का
रात्री और उजास का |
प्रकाश हर लेता तम
फैलाता सन्देश स्नेह का
चमकता दमकता घर
करता इज़हार खुशियों का |
आशा
18 अक्तूबर, 2011
प्रकृति प्रेमी
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhqgk7FfCGlY__q-vtYSI0ElmlLYAdYEai7APM5RlDB-drVoNTK7YVPAMWO2o9UhPlqIau2aiuVxjcxAKLuIjkrkvvSr1wTWDRlEeHZ7bete7kkKfVjdhdhi5eHWj7vTH2raHoF5Pgcz_0/s320/images.jpeg)
पगडंडी सकरी सी
मखमली फैली हरियाली
लगती उसे अपनी सी |
बचपन से ही था अकेला
एकांत प्रिय पर मृदुभाषी
भीड़ में भी था एकाकी
कल्पना उसकी साथी |
था गहरा लगाव उसे
प्रकृति की कृतियों से
मन मयूर नाच उठता था
उनके सामीप्य से |
हरी भरी वादियों में
कलकल करता झरना
ऊंचाई से नीचे गिरता
मन चंचल कर देता
जलचर थलचर भी कम न थे
नभचर का क्या कहना
लगता अद्भुद उन्हें देखना
उनमें ही खोए रहना |
था ऐसा प्रभावित उनसे
क्यूँ की वे थे भिन्न मानव से
घंटों गुजार देता वहाँ
तन्मय प्रकृति में रहता |
हर बार कुछ नया लिखता
देता विस्तार कल्पना को
रचनाएँ ऐसी होतीं
परिलक्षित करतीं प्रकृति को |
भावों की बहती निर्झरणी
यादों में बसती जाती
खाली एकांत क्षणों में
आँखों के समक्ष होती |
वह खुशी होती इतनी अमूल्य
जिसे व्यक्त करता
मन चाहे स्वरुप में
खो जाता फिर से प्रकृति में
आशा
12 अक्तूबर, 2011
चाहत
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh3QR1zaNW9-QMeApVx4HBC3FZWqnwMzW-bGnbOIgFDnnlSOP-E_Gw9uAIQRJlfhjNrVtk2RAdU0c-IPb8or2xbwcFAuEuDtlAWDDJvSg3HtWAL8eOWe5Wp6pdbQY0QxFpSOgz36xO86ps/s320/images.jpeg)
और कशिश उनकी ,
जब खींचेगीं बाँध पाएंगी
होगी परिक्षा उनकी |
उनका उठाना और झुक जाना
गहराई है झील की
आराधना और इन्तजार
चाहत है मन मीत की |
जाना न होगा दूर कहीं
किसी जन्नत के लिए
दूरियां घटती जाएँगी
पास आने के लिए |
कल्पनाओं की उड़ान मेरी
परवान चढती जाएगी
अब रोज ही त्यौहार होगा
आएगी घर में खुशी |
आशा
10 अक्तूबर, 2011
हूँ मैं एक आम आदमी
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEilZa9Ph1N8yEALURe43NcS-0HVJ6reRAhL0fymaRUjEfLpVAeoUTUNy-0ExNNAWJlZJulFoYn8J4THBWTAaRzuekppynSV9n4c3JiaVGLZFQbVwoOqr3mziJ5QgdGOfBvZ0U4YIsVxqPY/s320/images.jpeg)
अनोखा त्यौहार दीपावली का
अभिनव रंग जमाया है
स्वच्छता अभियान ने |
दीवारों पर मांडने उकेरे
और अल्पना द्वारों पर
है प्रभाव इतना अदभुद
हर कौना चमचमाया है |
बाजारों में आई रौनक
गहमा गहमी होने लगी
पर फिर भी सबके चेहरों पर
पहले सा उत्साह नहीं |
मंहंगाई की मार ने
आसमान छूते भावों ने
और सीमित आय ने
सोचने को बाध्य किया |
फीका स्वाद मिठाई का
नमकीन तक मंहंगा हुआ
उपहारों की क्या बात करें
सर दर्द से फटने लगा |
लगती सभी वस्तुएँ आवश्यक
रोज ही लिस्टें बनती है
पहले सोचा है व्यर्थ आतिशबाजी
पर बच्चे समझोता क्यूं करते
यदि मना किया जाता
वे उदास हो जाते |
हर बार सोचता हूँ
सबकी इच्छा पूरी करूँ
ढेरों खुशियाँ उनको दूं
पर सोच रह जाता अधूरा |
क्यूँ उडूं आकाश में
हूँ तो मैं एक आम आदमी
और भी हें मुझसे
मैं अकेला तो नहीं
जो जूझ रहा मंहंगाई से |
आशा
09 अक्तूबर, 2011
है अदभुद अहसास
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjHiYcl0py9Lgu4vv6KmPySs-6yT89XOfoxNCZezgST4uz6s_NgIq3khBzJwXE0fgBpzn5ulEq0ndUC3zFYno-oGd6TSyjGiPgf8F376DN9qLOW17skUURX_bERX_u47k3HWkHfizYg1fk/s320/images.jpeg)
अदभुद अहसास तेरे आगमन का
और मिठास की कल्पना
तेरी खनकती आवाज की |
जब होती हलचल सी
रहती बस यही कल्पना
जल्दी से तू आए
मेरी गोदी में छुप जाए |
कभी ठुमक ठुमक नाचे
गाये तोतली भाषा में
खिलखिलाए बातें बनाए
मेरे घर के आँगन में |
नन्हीं सी बाहें जब फैलाए
गोदी में उठालूँ
बाहों में झुलाऊ
बाँध लूं प्यार से बंधन में |
काले कजरारे नयनों पर
यदि बालों की लटआए
जल्दी से उन्हें सवारूँ
बांधूं लाल रिबिन से |
काजल का दिठोना
लगा भाल पर
तुझे बचाऊँ दुनिया की
बुरी नजर से |
हो चाँद सी उजली सूरत
सीरत किसी देवी सी
तू चले महुआ महके
हँसे तो फूल झरे |
जब अश्रु आँखों में आएं
तुझे कहीं आहत कर जाएँ
अपने आँचल से पोंछ डालूं
आने न दूं उन्हें तेरी जिंदगी में |
तू जल्दी से आ जा
मेरी जिंदगी में
दुनिया चाहे गुड्डा
पर तू है चाहत मेरी |
आशा
06 अक्तूबर, 2011
अवसाद में
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiztzTF6bZJHjxDG3WqhkgZAAjpfU4JxV_1aMHP9MwYkSguvnsEeEFv8Z12-4hUwI7OvlRPdnn-4SGNXZ1g8Wk2DDlm4NIvhPXx3baCOdnqPkV_JhWtBqVa_7speYC8jVP-7n1PTEPWuoc/s320/images.jpeg)
सार्थक चर्चा करने का भी , कोई अधिकार नहीं |
प्रीत की रीत न निभा पाया , मुझे आश्चर्य नहीं ,
सोचा मैंने क्या व हुआ क्या, अब सरोकार नहीं |
वे रातें काली स्याह सी , जाने कहाँ खो गईं ,
बातें कैसे अधरों तक आईं , जलती आग हो गईं |
आती जाती वह दिख जाती , डूबती अवसाद में ,
ऐसा मैंने कुछ न किया था , जो थी ज्वाला उसमें |
आशा
05 अक्तूबर, 2011
कल्पना
कल्पना में समा जाए
जो कभी ना भी सोचा
कल्पना में होता जाए |
होता आधार उसक
केवल मन की उपज नहीं
होता अनंत विस्तार
कल्पना की झील का |
परिवर्तित होता आयाम
स्थूल रूप पा कर भी
कभी कम तो कभी
अधिक होता |
अपने किसी को दूर पा
कई विचार मन में आते
कल्पना का विस्तार पा
मन में हलचल कर जाते |
जो भी जैसा होता
वैसा ही सोच उसका होता
कल्पना में डूब कर
तिल का ताड़ बना देता |
धर्म और जातीय समीकरण
कई बार बिगडते बनाते
वैमनस्य बढता जाता
जब कल्पना के पंख लगते |
हर रोज जन्म लेती
कोइ नई कल्पना
फलती फूलती
और पल्लवित होती |
नहीं अंत कोई उसका
स्वप्न भी जो दिखाई देता
होता समन्वय और संगम
कल्पना और सोचा का |
आशा
03 अक्तूबर, 2011
दीवारें
02 अक्तूबर, 2011
स्वार्थ
ऋतुओं ने भी करवट ली
है वही सूरज वही धरती
ओर है वही अम्बर
चाँद सितारे तक ना बदले
पर बदल रहा इनसान |
सृष्टि के कण कण में बसते
तरह तरह के जीव
परिष्कृत मस्तिष्क लिये
है मनुष्य भी उनमें से एक |
फिर भी बाज नहीं आता
बुद्धि के दुरुपयोग से
प्राकृतिक संसाधनों के
अत्यधिक दोहन से |
अति सदा दुखदाई होती
आपदा का कारण बनती
कठिनाई में ढकेलती
दुष्परिणामों को जान कर भी
वह बना रहता अनजान |
बढ़ती आकांक्षाओं के लिये
आधुनिकता की दौड़ में
विज्ञान का आधार ले
है लिप्त स्वार्थ सिद्धि में
जब भी होगा असंतुलन
वही तो होग कोप भाजन
प्रकृति के असंतुलन
ओर बिगड़ते समीकरण
भारी पड़ेगे उसी पर |
ले जाएंगे कहाँ
यह तक नहीं सोचता
वही कार्य दोहराता है
बस जीता है अपनी
स्वार्थ सिद्धि के लिये |
आशा
01 अक्तूबर, 2011
गांधी एक विचार
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiTZF-Ulua77PENfVGwuovZBPbbcsZYXK0toImAFDv81o7WBcigN3eaKTcaOubdNZNd75pVewP8uRN2eklboA0EGR4eoY8uoNlKCAvS4VfriW5aV5hE5cXUYAo3exeVG4XG3jORgCj8zyk/s320/index.jpeg)
इसके पीछे कई लोगों का योगदान है |कुछ के नाम तो चमके भी पर कई तो गुमनाम ही रह गए | उन नीव के पत्थरों को भुलाना हमारी भूल ही होगी |क्रान्तिकारियों के सक्रीय योगदान को भुलाया नहीं जा सकता |
हिन्दुस्तानी मन से स्वतंत्रता चाहते हुए भी विवश थे क्यूं कि उनको बहुत दबा कर रखा जाता था |कुछ लोगों में संगठन करने की अदभुत शक्ति थी |सुभाष चन्द्र बोस ने तो आजाद हिंद फौज भी बना ली थी आजादी की लड़ाई के लिए | गांधी जी भी भारत की स्वतंत्रता चाहते थे |
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश शासन की अर्थ व्यवस्था खराब होने लगी थी |फिर भी वे भारत पर पूरा हक जमाते थे |
गांधी जी क्रान्ति के पक्षधर थे पर वे रक्त विहीन क्रान्ति चाहते थे |इस लिए उन्होंने असहयोग आंदोलन जैसे कई आन्दोलनों का सहारा ले अंग्रेजों पर दबाव बनाया और भारत को आजाद कराने का अपना सपना पूर्ण किया |
फिर भी वे देश को दो भागों में विभक्त होने से नहीं बचा पाए |वे चाहते थे कि कांग्रेस समाज सेवा करे और राजनीति से दूर रहे |पर कुछ लोग सत्ता के लोभ को ना छोड़ पाए |वे सत्ता सुख चाहते थे |महात्मा गांधी की सत्य अहिंसा और सीमित आवश्यकता की बाते भूल गए |आज हम स्वतंत्र हो कर भी कितने असहाय हें यह बात बार बार मन में उठाती है |
जब उन की गोली मार कर ह्त्या करदी गयी हमने एक महान पथ प्रदर्शक खो दिया |एक संत के प्रति यह जघन्य अपराध था |शायद यही कारण है आज होते विघटन का |
वे राष्ट्र पिता यूँ ही नहीं कहलाते |उनके गुण और सत्कर्मों ने ही उन्हें इस पद पर आसीन किया है |वे हमारे देश के गौरव हें |
आशा
30 सितंबर, 2011
विनती
29 सितंबर, 2011
तुम ना आए
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhjZ5Ofa8LbXoStLjdnkGPi-b21e2HJ_vlcRuOpB4egVMSamkYz0LmQAtSKqmg4-E9QNyqgfWaqYx0jpFKcxnOmwZpry8PML1aj5hE44YAU7PKDy-EsbypjTPpPAjw35Rv-cCltlTz18Fc/s320/images.jpeg)
आते तभी जान पाते
कितने जतन किये
स्वागत की तैयारी में |
अमराई में कुंजन में
जमुना जल के स्पंदन में
कहाँ नहीं खोजा तुमको
इस छोटे से जीवन में |
खोजा गलियों में
कदम के पेड़ तले
तुम दूर नज़र आए
मगन मुरली की धुन में |
पलक पावडे बिछाए थे
उस पल के इन्तजार में
वह होता अनमोल
अगर तुम आ जाते |
आते यदि अच्छा होता
सारा स्नेह वार देती
प्यारी सी छबी तुम्हारी
मन में उतार लेती |
बांधती ऐसे बंधन में
चाहे जितनी मिन्नत करते
कभी न जाने देती
अपनी मन बगिया से |
आशा
27 सितंबर, 2011
दिल किसे कहें
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgxvZABnKECm39ReBPkGgFiixnpx-QNxGHadT7lGCUeeelxKUhOnVr986UAV-Jm_Lv_7mdQFQ7BvLLyngpWQH1F1g5vdm7B4zRL3cx2SU8INhfhILALK2D8Rh-ij82GRov6qfUW0lzdPps/s320/images.jpeg)
या हिस्सा शरीर का
पर सभी बातें करते
दिल की दिलदारी की |
पल सुख के हों या दुःख के
दौनों ही प्रभावित करते
धडकनें तीव्र होती जातीं
चैन न आ पाता उसको |
हर रंग प्रकृति का
सवाल कर झझकोरता उसे
कभी कोइ जज़बाती करता
बेचैन कर जाता उसे |
मस्तिष्क से उठाती तरंगें
संकेत कुछ देती उसे
वह भावों में डूबा रहता
कल्पनाओं में जीता |
क्या है वह वही दिल
जिसके होते चर्चे आम
दिल लेने देने की बातें
होती रहती सरे आम |
फिर भी कुछ तो होते ऐसे
जो हृदय हीन दिखाई देते
कोइ भी अवसर हो
अनर्गल बातें करते |
पर संवेदनशील हुए बिना
वे कैसे हें रहा पाते
है विचारणीय होता दिल क्या
और घर कहाँ उसका |
है बड़ी दुविधा किसे दिल कहें
उसे तो नहीं जो धड़के शरीर में
या वह जिसका घर होता
मन मस्तिष्क में |
आशा
26 सितंबर, 2011
मेरा अस्तित्व
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgBQMiSu2S1K6jLMCRbq1uaCT3a0o5zTW43TDoGowZy8VAd0Df_1re1-4V3y0Y6xxTauBFpWNL1aTSd3W7jTQ7dWM6bDVwh049NY7lhBvflZxT_aHIAkKscvBrBkVR_0f0IXG7soVLKMbk/s320/images.jpeg)
और मैं छाँव तेरी
है यदि तू जलस्त्रोत
मैं हूँ जलधार तेरी |
तू मंदिर का दिया
और मैं बाती उसकी
अगाध स्नेह से पूर्ण
मैं तैरती उसमे |
तूने जो चाहा वही किया
उसे ही नियति माना
ना ही कोइ बगावत
ना ही विरोध दर्ज किया |
पर ना जाने कब
पञ्च तत्व से बना खिलौना
अनजाने में दरक गया
सुकून मन का हर ले गया |
कई सवाल मन में आए
वे अनुत्तरित भी न रहे
पर एक सवाल हर बार
आ सामने खडा हुआ |
है क्यूँ नहीं अस्तित्व मेरा
वह कहाँ गुम हो गया
मेरा वजूद है बस इतना
वह तुझ में विलीन हो गया |
आशा
23 सितंबर, 2011
ओ अजनवी
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgdVOTSqgGgKSbZLzzRY_Kt-B25uKrV5FZcTiP3OgpFoW0FS0OgQD5VGO3mIISUihtFMAHC2IUJ0SfDAlbk_yxp3is2TcUo-0CYIiGJH6qQ3kVguqhoYUicBLgPQGO1zDwj0PyKlF2Cutk/s320/images.jpeg)
ओर हों कौन ओ अजनवी
जाने कब तुम्हारा आना
मेरे जीने का बहाना हों गया |
ये सलौना रूप और पैरहन
और आहट कदमों की
छिप न पाये हजारों में
ले चले दूर बहारों में |
दिल में हुई हलचल ऐसी
सम्हालना उसे मुश्किल हुआ
हर शब्द जो ओंठों से झरा
हवा में उछला फिज़ा रंगीन कर गया |
हों तुम पूरणमासी
या हों धुप सुबह की
साथ लाई हों महक गुलाब की
तुम्ही से गुलशन गुलजार हों गया |
चहरे का नूर और अनोखी कशिश
रंगीन इतनी कि
रौशनी का पर्याय हों गयी |
दिल में कुछ ऐसे उतारी
गहराई तक उसे छु गयी
वह काबू में नहीं रहा
कल्पना में खो गया |
आशा
22 सितंबर, 2011
मन बावरा
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi9qtyh1Q3hgzswYniJxukf1IkD-oj3J8c3peqKLHOufVSgKyI9TgiOIGVWJGgCl6e8qqtM3fKHcVNrPMb9Mtt4T0SUGf2a5cgRxOfc06hTlA9e7sKFDD55N7gCY6z3YAvDeQ1-aQRLin0/s320/images.jpeg)
घनी छाँव बरगद की
चाहत है उसमे
बेपनाह मोहब्बत की |
यहाँ वहाँ का भटकाव
और सब से होता अलगाव
अब सहन नहीं होता
एकांत पा बेचैन होता |
अब चाहता ठहराव
अपने धुमंतू जीवन में
समय भी ठहर जाए
भर दे नई ऊर्जा ह्रदय में |
अब तक अनवरत
भागता रहा
बचपन कब बीता
याद नहीं आता |
है सुख का पल क्या
जान नहीं पाता
बस भागता रहता
कुछ पाने की तलाश में |
चाहता है क्या ,जानता नहीं
पर है इतना अवश्य
कहीं गुम हो गयी है
पहचान मेरी |
अब ऊब गया इस बेरंग उदास
एक रस जीवन से
बच नहीं पाया
अस्थिरता के दंशों से |
जन्म से आज तक
पल दो पल की भी
शान्ति न मिल पाई
इस बंजारा जीवन में |
पर अब भी है दुविधा बाकी
क्या यह ठहराव
दे पाएगा आज भी
कुछ पल का सुकून |
आशा
20 सितंबर, 2011
ताज महल
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjbJj_y_K-uAV9msEZbhVcmS9v49SCxW4mtitlRmtr0UcWVH0AuKEiW6LYF4umfw0sJeuDfobN6-qcMgve-2jm2i4muK9Dz1WA_61__rvt-9BoR9uD3P8TbcwsMV7WxjXo29shzlyhgd3M/s320/images.jpeg)
कहानी कही अपने अंदाज में
वह आगे बढता जाता था
कई कहानी ताज की सुनाता था |
उसी से सुनी थी यह भी कहानी
विश्वास तो तब भी न हुआ था
इतना नृशंस शहंशाह होगा
मन को यह स्वीकार न हुआ |
निर्माण कार्य में जुटे कारीगर
दूर दूर से आए थे
कुशल इतने अपने हुनर में
थी न कोइ सानी उनकी |
ताज महल के बनाते ही
वे अपने हाथ गवा बैठे
था फ़रमान शाहजहां का
जो बहुत प्रेम करता था
अपनी बेगम मुमताज से |
वह चाहता न था
कोइ ऐसी इमारत और बने
जो ताज से बराबरी करे |
जीवन के अंतिम पलों में
था जब बेटे की कैद में
अनवरत देखता रहता था
इस प्रेम के प्रतीक को |
आज भी बरसात में
दौनों की आरामगाह पर
जो बूँदें जल की गिरती हैं
दिखती परिणीति परम प्रेम की |
यह कोइ नहीं कहता
अकुशल थे कारीगर
बस यही सुना जाता है
आकाश से प्रेम टपकता है |
आशा
18 सितंबर, 2011
कल्पना के पंख
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiyGy7hcrQ81dLwQSjV_O2HZeRrd6vNEYqZX_CcjSf5egOBqbdXn0fZ_A7HSI8HnZoT_U6E5XJJw_JLeMG9m-AtTUFQuyhrXbRsVWWWWm-H9A_bqFxeyUbf5F6-WoRkttLlUxs6hPn8leE/s320/index.jpeg)
आसमान छूने को
कई स्वप्न सजाए
साकार उन्हें करने को |
उड़ती मुक्त आकाश में
खोजती अपने अस्तित्व को
सपनों में खोई रहती थी
सच्चाई से दूर बहुत |
पर वह केवल कल्पना थी
निकली सारी खोखली बातें
ठोस धरातल छूते ही
लगा वे थीं सतही बातें |
और तभी समझ पाई
कल्पना हैं ख्याली पुलाव
होते नहीं सपने भी सच्चे
होती वास्तविकता कुछ और |
आशा
16 सितंबर, 2011
नफ़रत
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhyvVsTikiXowJFIwKmAZ42DXua_ipus-3hxC1CPjf01_M1fiNU2pZWUfKrGFf1J9MPmYWM-tPDnklD1FTiQ5vq5UWZIhKpXZ2QA5YWXiffwt7V9zQzhY4kyavHup0H3qniy08qD60ui_I/s320/images.jpeg)
अनजाने में चिनगारी बनी
जाने कब शोले भड़के
सब जला कर राख कर गए |
फिर छोटी छोटी बातें
बदल गयी अफवाहों में
जैसे ही विस्तार पाया
वैमनस्य ने सिर उठाया |
दूरियां बढ़ने लगीं
भडकी नफ़रत की ज्वाला
यहाँ वहां इसी अलगाव का
विकृत रूप नज़र आया |
दी थी जिसने हवा
थी ताकत धन की वहाँ
वह पहले भी अप्रभावित था
बाद में बचा रहा |
गाज गिरी आम आदमी पर
वह अपने को न बचा सका
उस आग में झुलस गया
भव सागर ही छोड़ चला |
आशा
15 सितंबर, 2011
वह दृष्टि
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg0QyY_zXQP8EB0Ya2QsEaHdQT5qVf_WqP_SEbu_W9H2OSqXdGO3SpOWY-Ch492qtlAw7WhGf7f9ztqCzexS6fX9beolE2pgdOiDgiZrnbsISfHsy7XTJT0dh8QN3cdidT6gY2wIqDOsz8/s320/images.jpeg)
मन में है क्या, न बता पायें
पर मनोभाव पढ़ने के लिए
होती आवश्यक नज़र पारखी |
भावों की अभिव्यक्ति के लिये
होती है कलम आवश्यक
वह कलम क्या जो रूक जाये
भावों को राह न दे पाये |
मन में उठते भावों को यदि
लेखनी का सानिध्य मिले
सशक्त लेखनी से जब
शब्दों को विस्तार मिले
वह दृष्टि क्या, जो न पढ़ पाये
उनका अर्थ न समझ पाये |
आशा
14 सितंबर, 2011
हिन्दी से परहेज कैसा
रहने का अंदाज है अपना
भिन्न धर्म और नियम उनके
फिर भी बंधे एक सूत्रे से |
है देश के प्रति पूरी निष्ठा
रहते सब भाई चारे से
भारत में रहते हैं
हिन्दुस्तानी कहलाते हैं
फिर भाषा पर विवाद कैसा |
विचारों की अभिव्यक्ति के लिए
सांझा उनको करने ले लिए
कोइ तो भाषा चाहिए
हो जो सहज सरल
ओर बोधगम्य
लिए शब्दों का प्रचुर भण्डार |
हिन्दी तो है सम्मिलित रूप
यहाँ प्रचलित सभी भाषाओं का
जो भी उसे अपनाए
लगे वह उनकी अपनी सी |
जब इंग्लिश सीख सकते हैं
उसे अपना सकते है
फिर हिन्दी को अपनाने से
राष्ट्र भाषा स्वीकारने में
है परहेज कैसा ?
आशा
12 सितंबर, 2011
तुम तो कान्हां निकले
11 सितंबर, 2011
मुस्कान रूठ जाएगी
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEivLixU2Y89gKT2WtI8K6D6mZpHQGjMeTJSRoxTb8l52JlvhLGbL2cE2zY8URHJY4KGs6yArj8nPMofMNB0feMLv8FZznVI8X_2dgwxUmySAcJI7QSyDvTaikcJrNp8oq9oq_Ij1m5u5bs/s320/images.jpeg)
जाने कितनी यादें
दिल में समाई
जब भी झांका वहाँ
तुम ही नजर आए |
वे सुनहरे दिन
वे उल्हाने वे वादे
सारा चैन हर लेते थे
जाने कब पलक झपकती थी
कब सुबह हो जाती थी |
स्वप्नों के झूलों में झूली
राह देखना तब भी न भूली
अधिक देर यदि हो जाती
बहुत व्यथित होती जाती |
द्वार पर होती आहट
मुझे खींच ले जाती तुम तक
नज़रों से नजरें मिलते ही
कली कली खिल जाती |
वे बातें कल की
भूल न पाई अब तक
हो आज भी करीब मेरे
पर प्यार की वह उष्मा
हो गयी है गुम |
कितने बदल गए हो
दुनियादारी में उलझे ऐसे
उसी में खो गए हो
सब कुछ भूल गए हो |
कोइ प्रतिक्रया नहीं दीखती
भाव विहीन चेहरा रहता है
गहन उदास चेहरा दीखता है
हंसना तक भूल गए हो |
इस दुनिया में जीने के लिए
ग्रंथियों की कुंठाओं की
कोइ जगह नहीं है
उन्हें भूल ना पाओ
ऐसी भी कोइ वजह नहीं है |
खुशियों को यदि ठोकर मारी
वे लौट कर न आएंगी
जीवन बोझ हो जाएगा
मुस्कान रूठ जाएगी |
आशा
10 सितंबर, 2011
कशमकश
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjAIT-e_M-Vk_HknnNBkGiFSV9Yi1iq8FUpkXKaNYyt482Fdi7Rb15jN8jvFzGfaMl3Rl2itsRyLm9Sd6t28tOrrKsrBhaWakWhkQya-2yX64aQJnTV08EKNZrEtosc0n53KpvjlEqf2KQ/s320/May13201105.jpg)
- उस दिन तो बरसात न थीमौसम सुखमय तब भी न लगासब कुछ था पहले ही साफिर मधुर तराना क्यूं न लगा |शायद पहले बंधे हुए थेकच्चे धागों की डोर सेलगती है वह टूटी सीसूखी है हरियाली मन की |सुबह वही और शाम वहीहै रहने का स्थान वहीपर लगता वीराना सारा मंजररहता मन बुझा बुझा सा |यादों की दुनिया से बाहरआने की कशमकश मेंहोती है बहुत घुटनपर है अनियंत्रित मन |मन नहीं चाहताकिसी और बंधन में बंधनाअब फंसना नहीं चाहतादुनियादारी के चक्रव्यूह में|
07 सितंबर, 2011
प्याज क छिलके
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEix8bTXzC_RcyV60ZSBMcwkt_K0zxtu6VP8OYl39NCnnJ9tyqZZDCh4BX2gWjxIO3iWzPmwHOd72Qp-uLDBawKUjkDdvYoghXolh0-LjsNAlgJXOOa8xWvsET0_58J7uGbUf85hOcMrdAA/s320/index.jpeg)
आचरण समाज का
है प्याज के छिलके सा
जब तक उससे चिपका रहता
लगता सब कुछ ठीक सा |
हैं अंदर की परतें
समाज में होते परिवर्तन की
प्रतीक लगती हैं
अंदर होते विघटन की |
दिखते सभी बंधे एक सूत्र में
फिर भी छिपते एक दूसरे से
पीठ किसी की फिरते ही
खंजर घुसता पीछे से |
तीव्र गंघ आती है
किसी किसी हिस्से से
यदि काट कर न फेंका उसे
प्रभावित और भी होते जाते |
ये तो हैं अंदर की बातें
बाहर से सब एक दीखते
आवरण से ढके हुए सब
अच्छे प्याज की मिसाल दीखते |
बाह्य परत उतरते ही
स्पष्ट नजर आते
टकराव और बिखराव
उसी संभ्रांत समाज में |
है कितनी समानता
प्याज में और समाज में
छिलके उतरते ही
दौनों एकसे नजर आते |
फिर असली चेहरा नजर आता
खराब होते प्याज का
या विघटित होते समाज का
जैसे ही छीला जाता
आंखें गीली कर जाता |
आशा